गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
स्वर्ग-सुख और एहिक सुख उसकी संपदा की केवल एक अल्प-सी छाया है; क्योंकि ज्यों-ज्यों वह भगवान् में विकसित होता जाता है, त्यों-त्यों भगवान् भी अपनी अनंत सत्ता की सारी ज्योति, शक्ति और आनंद के साथ उसके ऊपर प्रवाहित होने लगते हैं।[1]सधारण लोक-धर्म समग्र भगवान् से इतर अंश देवताओं का यजन है। गीता प्राचीन वैदिक धर्म के ही तत्कालीन विकसित बहिरंग से प्रत्यक्ष उदाहरण लेती है; इस बाह्य पूजन को गीता ने अन्य देवताओं का या वसु-रुद्रादित्यरूप पितरों का अथवा भौतिक शक्तियों और भूत-पे्रतों का पूजन कहकर बखना है। मनुष्य साधारणतः अपना जीवन और कर्म भागवती सत्ता की अपनी समझ या दृष्टि में जंचने वाली अंश-शक्तियों और अंश-स्वरूपों को, विशेषतः ऐसी शक्तियों और और स्वरूपों को अर्पित करते हैं जो उने निकट प्रकृति और मनुष्य के अंदर की मुख्य-मुख्य चीजों के प्रतिरूपक होते हैं अथवा जो उनके सामने उनकी अपनी मानवता को ही अतिदैव-रूप में प्रतिभासित करते हैं। यदि मनुष्य इस प्रकार का भजन-पूजन श्रद्धा के साथ करते हैं तो उनकी श्रद्धा अन्यथा नहीं होती ; क्योंकि भक्त भगवान् के जिस किसी प्रतीक, रूप या भाव में उन्हें भजता है, जैसा कि अन्यत्र कहा है, भगवान् उसे स्वीकार करते हैं और जैसी उसकी श्रद्धा होती है वैसे ही बनकर उससे मिलते हैं। सब सच्चे धार्मिक विश्वास और साधन यथार्थ में एकमेव परमेश्वर और जगदीश्वर की खोज हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9.20-22
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