गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 315

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान


इसी लोक में, अन्यत्र कहीं नहीं, परम पुरुष परमेश्वर को जानना होता है, जीव की सदोष भौतिक मानव-प्रकृति में से उसकी दैवी प्रकृति का विकास करना होता है, और ईश्वर, मनुष्य और जगत् के साथ एकत्व के द्वारा जीवन का समग्र विशाल सत्य ढूंढ़ निकालना, उस सत्य में जीना और उससे जीवन को प्रत्यक्ष रूप से विलक्षण और अद्भुत बनाना होता है। उसीसेे जन्म-मरण का लंबा चक्कर पूरा होकर परम फल पाने का अधिकार प्राप्त होता है। मानव जन्म से जीव को मिलने वाला यही शुभ अवसर है और जब तक इसका प्रयोजन पूर्ण नहीं होता तब तक जन्म-मरण का चक्कर बंद नहीं होता। ईश्वर-भक्त इस विश्वब्रह्मांड में मानव-जनम के इस परम प्रयोजन की ओर अनन्य प्रेम और भक्ति के द्वारा सतत आगे बढ़ता रहता है, इस प्रेम और भक्ति से वह परम पुरुष परमेश्वर और जगदात्मा जगदीश्वर को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है, अपनी अहंता की ऐहिक या पारलौकिक भोगों की तृप्ति को नहीं। उसके सारे चिंतन और दर्शन का भी यही एक उद्देश्य हो जाता है। एकमात्र भगवान् को ही देखना, प्रतिक्षण उन्हीं के साथ एकत्व में रहना, सब प्राणियों में उन्हींसे प्रेम करना और सब पदार्थों में उन्हींका आनंद लेना ही उसके आध्यात्मिक जीवन की संपूर्ण स्थिति होती है। उसका भगवद्दर्शन उसे जीवन से अलग नहीं करता, न जीवन की पूर्णता का कोई भाग उससे छूटता है क्योंकि भगवान् स्वयं ही उसका सर्वविध कल्याण करते और उसका अंतर्बाह्य सारा योग और क्षेम वहन करते हैं।

स्वर्ग-सुख और एहिक सुख उसकी संपदा की केवल एक अल्प-सी छाया है; क्योंकि ज्यों-ज्यों वह भगवान् में विकसित होता जाता है, त्यों-त्यों भगवान् भी अपनी अनंत सत्ता की सारी ज्योति, शक्ति और आनंद के साथ उसके ऊपर प्रवाहित होने लगते हैं।[1]सधारण लोक-धर्म समग्र भगवान् से इतर अंश देवताओं का यजन है। गीता प्राचीन वैदिक धर्म के ही तत्कालीन विकसित बहिरंग से प्रत्यक्ष उदाहरण लेती है; इस बाह्य पूजन को गीता ने अन्य देवताओं का या वसु-रुद्रादित्यरूप पितरों का अथवा भौतिक शक्तियों और भूत-पे्रतों का पूजन कहकर बखना है। मनुष्य साधारणतः अपना जीवन और कर्म भागवती सत्ता की अपनी समझ या दृष्टि में जंचने वाली अंश-शक्तियों और अंश-स्वरूपों को, विशेषतः ऐसी शक्तियों और और स्वरूपों को अर्पित करते हैं जो उने निकट प्रकृति और मनुष्य के अंदर की मुख्य-मुख्य चीजों के प्रतिरूपक होते हैं अथवा जो उनके सामने उनकी अपनी मानवता को ही अतिदैव-रूप में प्रतिभासित करते हैं। यदि मनुष्य इस प्रकार का भजन-पूजन श्रद्धा के साथ करते हैं तो उनकी श्रद्धा अन्यथा नहीं होती ; क्योंकि भक्त भगवान् के जिस किसी प्रतीक, रूप या भाव में उन्हें भजता है, जैसा कि अन्यत्र कहा है, भगवान् उसे स्वीकार करते हैं और जैसी उसकी श्रद्धा होती है वैसे ही बनकर उससे मिलते हैं। सब सच्चे धार्मिक विश्वास और साधन यथार्थ में एकमेव परमेश्वर और जगदीश्वर की खोज हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9.20-22

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