गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
वह ईश्वर को वह आदि स्रष्टा जानता है जो उस सबका उत्पादक है, जिससे देश, काल और संबंध के अंदर उत्पत्ति और सृष्टि होती है। वह ईश्वर को समष्टि जगत और व्यष्टि मात्र के भाग्य का स्वामी और विधाता जानता है। जिस मनुष्य ने अपने-आपको भगवान् को समर्पित कर दिया है उसे जगत्, देव और अनिश्चित घटना-चक्र डरा नहीं सकता और न इसका दुःख और दुराचार उसे व्याकुल कर सकता है। आत्मा की दृष्टि में ईश्वर ही मार्ग है और ईश्वर ही उसकी यात्रा का गंतव्य स्थान है, यह वह मार्ग है जिसमें कोई अपने को नहीं खोता और यह वह गंतव्य स्थान है, जिसके समीप वह प्रतिक्षण ईश्वर के ही दिखावे रास्ते से निश्चय ही जा रहा है। वह ईश्वर को अपनी और सारी सत्ता का स्वामी, अपनी प्रकृति का धारणकर्ता, प्रकृतिस्थ आत्मा का पति, उसका प्रेमी और पोषक, अपने सब विचारों और कर्मों का अंतस्साक्षी जानता है। ईश्वर ही उसका घर और देश है, उसकी सब वासना-कामनाओं का आश्रय-स्थान है, सब प्राणियों का अतिघनिष्ठ तथा मंलकारी ज्ञानी सृहृद है। दृश्य जगत् के सारे रूपों की उत्पत्ति, स्थिति, और प्रलय उसकी दृष्टि और अनुभूति में वही एकमेव ईश्वर है जो अपने कालगत आत्मविर्भाव को उसकी सतत पुनरावर्तन-पद्धति से बाहर ले आता, बना रखता और फिर अपने अंदर खींच लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अ ऊ म्-अ स्थूल और बाह्य जगत् का आत्मा ‘विराट' है, ऊ सूक्ष्म और आंतर जगत् का आत्मा 'तैजस' है, म् गुप्त परमचैतन्य सर्वशक्तिमत्ता का आत्मा 'प्राज्ञ' है, ऊँ निरपेक्ष, तुरीय है-माण्ड्क्य उपनिषद्।
- ↑ 9.16-17
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