गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 313

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान


जो अनंत की आत्मनिहित परम चिन्मयी शक्ति में व्यक्त है, वह ऊँ पर और अर्थ, रूप और मान का परम मूल, बीज और गर्भाशय है, स्वयं ही, अपने पूर्ण रूप में, इन्द्रियातीत परम भाव है, मूलभूत एकत्व है, वह कालातीत रहस्य है जो परम पुरुष में संपूर्ण व्यक्त के ऊर्ध्व में स्थित और स्वतःसिद्ध है।[1]अतः यह यज्ञ एक साथ ही कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों है।[2]जो जीव इस प्रकार जानता, भक्ति करता और अपने सारे कर्म अपनी सारी सत्ता की महती शरणागति के भाव से सनातन पुरुष को अर्पण करता है उसके लिये ईश्वर सब कुछ है और सब कुछ ईश्वर है। वह ईश्वर को इस जगत का वह पिता जानता है जो अपने बच्चों को पालता, पोसता और उनपर अपनी दृष्टि रखता है। वह ईश्वर को वह भगवती माता जानता है जो हमें अपनी गोद में उठाये रहती है, हम लोगों पर अपने प्रेम के माधुर्य की वर्षा करती और इस विश्व को अपने सौन्दर्य के रूपों से परिपूर्ण कर देती है।

वह ईश्वर को वह आदि स्रष्टा जानता है जो उस सबका उत्पादक है, जिससे देश, काल और संबंध के अंदर उत्पत्ति और सृष्टि होती है। वह ईश्वर को समष्टि जगत और व्यष्टि मात्र के भाग्य का स्वामी और विधाता जानता है। जिस मनुष्य ने अपने-आपको भगवान् को समर्पित कर दिया है उसे जगत्, देव और अनिश्चित घटना-चक्र डरा नहीं सकता और न इसका दुःख और दुराचार उसे व्याकुल कर सकता है। आत्मा की दृष्टि में ईश्वर ही मार्ग है और ईश्वर ही उसकी यात्रा का गंतव्य स्थान है, यह वह मार्ग है जिसमें कोई अपने को नहीं खोता और यह वह गंतव्य स्थान है, जिसके समीप वह प्रतिक्षण ईश्वर के ही दिखावे रास्ते से निश्चय ही जा रहा है। वह ईश्वर को अपनी और सारी सत्ता का स्वामी, अपनी प्रकृति का धारणकर्ता, प्रकृतिस्थ आत्मा का पति, उसका प्रेमी और पोषक, अपने सब विचारों और कर्मों का अंतस्साक्षी जानता है। ईश्वर ही उसका घर और देश है, उसकी सब वासना-कामनाओं का आश्रय-स्थान है, सब प्राणियों का अतिघनिष्ठ तथा मंलकारी ज्ञानी सृहृद है। दृश्य जगत् के सारे रूपों की उत्पत्ति, स्थिति, और प्रलय उसकी दृष्टि और अनुभूति में वही एकमेव ईश्वर है जो अपने कालगत आत्मविर्भाव को उसकी सतत पुनरावर्तन-पद्धति से बाहर ले आता, बना रखता और फिर अपने अंदर खींच लेता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अ ऊ म्-अ स्थूल और बाह्य जगत् का आत्मा ‘विराट' है, ऊ सूक्ष्म और आंतर जगत् का आत्मा 'तैजस' है, म् गुप्त परमचैतन्य सर्वशक्तिमत्ता का आत्मा 'प्राज्ञ' है, ऊँ निरपेक्ष, तुरीय है-माण्ड्क्य उपनिषद्।
  2. 9.16-17

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