गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
उनका यज्ञ है ज्ञान-यज्ञ और ज्ञान के ही एक अनिर्वचनीय परम भाव और आनंद से वे पुरुषोत्तम की भक्ति करने लगते हैं यह वह ज्ञान है जो भक्ति से भरा हुआ है, क्योंकि यह अपने कारणों में पूर्ण है, अपने लक्ष्य में पूर्ण है। यह परम तत्त्व को केवल एक तात्विक एकत्व अथवा अबुद्धिग्राह्य निरपेक्ष सत्य के तौर पर मानकर उसका पीछा करना नहीं है। यह परम को और विश्वरूप परमात्मा को हृदय की अनुभूति के साथ ढूंढ़ना और अधिकृत करना है; यह अनंत का पीछा करना है उनकी अनंतता में, और अनंत को ही ढूंढ़ना है उन सब पदार्थों में जो सांत हैं; यह उन एक को उनके एकत्व में और उन्हीं एक को उनके अनेकविध तत्त्वों में, उनकी असंख्य छवियों, शक्तियों और रूपों में, यहां, वहां, सर्वत्र, कालातीतता में और काल में, गुणन में, विभाजन में, उनके एक ईश्वरभाव के अनंत पहलुओं में, असंख्य जीवों में, उनके उन करोड़ों विश्वरूपों में जगत् और उसके प्राणियों के रूप में हमारे सामने हैं- एकत्वेन पृथक्तवेन बहुधा विश्वतोमुखम् [2] देखना और आलिंगन करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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