गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
जो लोग महात्मा हैं, जो अपने-आपको उस दैवी प्रकृति के प्रकाश और उदारता की ओर खोल देते हैं जिसे प्राप्त होना मनुष्य की सामर्थ्य के अंदर है, वे ही उस मार्ग पर हैं जो आरंभ में बहुत ही संकरा पर अंत में अत्यंत विशाल होता हुआ मुक्ति और पूर्णता की ओर ले जाता है। मनुष्य के अंदर जो देवत्व है उसकी वृद्धि करना मनुष्य का समुचित कर्म है; उसके अंदर की निम्न आसुरी और राक्षसी प्रकृति को निरंतर दृढ़तापूर्वक दैवी प्रकृति में परिणत करना ही मानव जीवन का दक्षतापूर्वक निहित मर्म है। जैसे-जैसे यह वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे आवरण हटता जाता है और जीव कर्म के उत्तरोत्तर महान् अभिप्राय को तथा जीवन के वास्तविक तथ्य को समझने लगता है। आंख खुल जाती है उन भगवान की ओर जो मनुष्य के अंदर हैं, उन भगवान् की और जो जगत् के अंदर हैं; वह अंतर्मुखी होकर उस अनंत आत्मा को, उस अविनाशी को देखता है जिससे सारे भूत उत्पन्न होते हैं और जो सब भूतों के अंदर रहता है और जिसके द्वारा और जिसके अंदर यह सब कुछ बना रहता है, और उसीको बाहर की ओर जानने लगता है। अतः जब[3] यह प्रत्यक्ष आभास और ज्ञान जीव को अधिकृत कर लेता है तब उसकी सारी जीवनाकांक्षा भगवान् और अनंत के प्रति परम प्रेम और अथाह भक्ति बन जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9.11-12
- ↑ सिसिफस को यह शाप था कि उसे एक चट्टान की चोटी पर बहुत बड़ा पत्थर चढा़ना होगा।
- ↑ जब-जब पत्थर चोटी के पास पहुँचता तो लुढ़क जाता था, और उसे फिर से वही क्रम शुरू से करना पड़ता था ।-अनु 0
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