गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 31

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

4.उपदेश का कर्म


वह यह जानना चाहेगा कि उसका कर्तव्य क्या है अथवा यह कि अपन गोतियों, जाति-भाइयों और देशवासियों का संहार करना और रक्त बहाना भला उसका कर्तव्य कैसे हो सकता है? उससे कहा जा रहा है कि न्याय, धर्म, सत्य तुम्हारे पक्ष में हैं, पर इससे उसको संतोष नहीं होता, संतोष हो ही नहीं सकता; कारण उसका कहना यही है कि हमारा पक्ष न्याय का है सही, पर उसके लिये राष्ट्र का भविष्य बिगाड़ने वाला निर्दय रक्तपात करना न्याय नहीं है। तो क्‍या अर्जुन से यह कहना होगा कि तुम्हें इन सब बातों से क्या मतलब, तुम सैनिक हो-सैनिक का काम करो, लड़ो-कटो, मरो-मारो, चाहे पाप हो या पुण्य, इसका कुछ भी फल हो, उसका विचार न करो, निर्विकार भाव से अपना कर्म किये जाओ? परंतु यह सीख किसी राज्य की ओर से हो सकती है, राजनीतिक, वकील, नैतिक धर्माधर्मविचारक ऐसा कह सकते हैं, पर कोई महान् धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथ, जिसका उद्देश्य जीवन और कर्म के प्रश्न को जड़मूल से हल करना हो, ऐसी शिक्षा नहीं दे सकता। और, यदि नैतिक और अध्यात्म-विषयक ऐसे मार्मिक प्रश्न के विषय में गीता को यही बात कहनी हो तो इसे संसार के महान् धर्म ग्रंथों की सूची से अलग करना होगा और फिर यदि इसे कहीं रखना ही हो तो राजनीतिशास्त्र और आचारशास्त्र के किसी पुस्तकालय में रख सकते हैं।

निश्चय ही गीता में, उपनिषदों की तरह उस ममता का उपदेश है जो पुण्य और पाप से ऊपर, अच्छे और बुरे के परे है, पर वह समता केवल ब्राह्मी चेतना का अंग और उसका उपदेश उसी के लिये है जो उस मार्ग पर हो और उस परम धर्म को चरितार्थ करने के लिये काफी आगे बढ़ चुका हो। यह मनुष्य के सामान्य जीवन के लिये अच्छे बुरे से उदासीन होने का उपदेश नहीं देतीं, जहाँ इस प्रकार की शिक्षा का बहुत ही हानिकारक परिणाम हो सकता है। वैसे जीवन के लिये तो गीता का निर्देश है कि बुरे कर्म करने वाले कभी ईश्वर को नहीं पा सकते। इसलिये यदि अर्जुन केवल मनुष्य-जीवन के सामान्य धर्म को ही सर्वोत्तम प्रकार से चरितार्थ करना चाहता हो तो जिस चीज को वह पाप समझता है, नरक की वस्तु समझता है उसी को निःस्वार्थ होकर करने से उसका कुछ भी भला न होगा, चाहे एक सैनिक के नाते वह पाप उसका कर्तव्य क्यों न हो।

उसकी विवेक बुद्धि जिस काम से घृणा कर रही है उससे उसे हटना ही होगा, चाहे उससे हजार कर्तव्य-कर्म धूल में न मिल जायें। हमें याद रखना चाहिये कि कर्तव्य वह भावना है जो व्यवहार में सामाजिक धारणाओं पर निर्भर है, इस सामान्य अर्थ से हम इस शब्द को और अधिक व्यापक करके यह कह सकते हैं कि अमुक कर्म हमारा अपने प्रति कर्तव्य है अथवा इस व्याप्ति से भी आगे बढ़कर यह कह सकते हैं कि सर्वस्व का त्याग करना बुद्ध का कर्तव्य था या यह भी कह सकते हैं कि गुहा में स्थिर होकर बैठना यती का कर्तव्य है! पर यह सब, स्पष्ट ही, शब्दों का खेल है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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