गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 306

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान


उसे परमात्मा और ब्रह्म को ज्ञान से जानना होगा; उसे अपनी भक्ति-पूजा परम पुरुष को चढ़ानी होगी; उसे अपने संकल्प और कर्म अखिल ब्रह्मांड के परम अधीश्वर के अधीन करने होंगे। इससे वह निम्न प्रकृति से भागवत प्रकृति में जाता है; वह अज्ञान के विचार, संकल्प और कर्म अपनी प्रकृति से निकाल फेंकता है और अपने भागवत स्वरूप के बोध से, उस परमात्मा के अंश के नाते, उसकी एक शक्ति और ज्योति के नाते सोचता, संकल्प और कर्म करता है; वह केवल इन बाह्य स्पर्शों, आवरणों और दिखावों को ही नहीं बल्कि भगवान् की समग्र आंतरिक अनंतता को भोगता है। इस प्रकार भागवत भाव से रहता हुआ, इस प्रकार अपने संपूर्ण आत्मभाव और प्रकृति को भगवान् की ओर लगाता हुआ परम ब्रह्म के सत्यतम सत्य के अंदर उठा लिया जाता है। वासुदेव को सब कुछ जानना और उसी ज्ञान में रहना ही असली रहस्य की चीज है।

मानव जीव उन्हें आत्मा जानता है, वह आत्मा जो अक्षर है, जिसके अंदर सब कुछ है और जो सबका अंतर्यामी है। वह निम्न प्रकृति के उलझे और अस्तव्यस्त जंजाल से निकल आता और स्वतःसिद्ध आत्मा की सुस्थिर और अचला शांति और प्रकाश में निवास करता है। वहाँ वह भगवान की इस आत्म के साथ सतत एकत्व को अनुभव करता है जो सब भूतों में स्थित है और समस्त चराचर जगत की सारी प्रवृत्ति और कर्म तथा दृश्य को धारण करती है। विकारी जगत् के इस सनातन अविकारी आधरभूत आत्मा में स्थित होकर वहाँ से वह उसे भी महान् सनातन, विश्वातीत, परम सत् की ओर देखता है। वह उन्हें सब पदार्थों में निवास करने वाले आत्मदेव, मानव-हृदय के स्वामी, निगूढ़ ईश्वर जानता है और उस परदे को हटा देता है जो उसके प्राकृत जीवभाव और उसकी सत्ता के इन अंतर्यामी आत्मस्वरूप स्वामी के बीच में है। वह अपने संकल्प विचार और आचार को ज्ञानपूर्वक ईश्वर के संकल्प, विचार और आचार के साथ एक कर देता है, उसका चित्त अतं:स्थित भगवान् के साथ-सदा अपने अंदर होने की भावना के साथ एक प्रकार की सतत अनुभूति के द्वारा-सुसंगत बना रहता है और वह सबके अंदर उन्हीं को देखता और उन्हीं की पूजा करता है और समूचे मानव-कर्म को भागवत प्रकृत के परम अभिप्राय में परिणत कर देता है। वह जानता है कि उसके चारों और सारे जगत् में जो कुछ है उसके मूल और सार-स्वरूप वे ही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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