गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 304

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग


भगवान् मानवशरीर में वास करते हैं। जो उनकी इस सत्ता की उपेक्षा करते हैं, जो इस मानवरूप के आवरण के कारण उनकी अवमानना करते हैं वे प्रकृति के दिखावों से भरमते और विमूढ़ होते हैं और इस कारण वे यह अनुभव नहीं कर सकते कि हमारे अंदर गुप्त रूप से भगवान् निवास करते हैं चाहे उनका यह निवास करना मानुष-तन में जागते हुए निवास करना हो जैसा कि अवतार में होता है या माया से छिपा हुआ हो। जो महात्मा हैं, अपने अहंभाव के अंदर कैद नहीं, जो अंतःस्थित भगवान् की ओर अपने-आपको सम्मुख किये हुए हैं, वे यह जानते हैं कि मनुष्य के अंदर जो गुप्त आत्मा है, जो यहाँ सीमित मानव-प्रकृति से बद्ध प्रतीत होती है वह वही अनिर्वचनीय तेज है जिसे हम बाहर परम पुरुष परमेश्वर कहकर पूजते हैं। वे भगवान् के उस परम पद् को जानते हैं जहाँ भगवान् सब भूतों के स्वामी और प्रभु हैं और फिर भी प्रत्येक भूत में वे देखते हैं कि ये ही भगवान् प्रत्येक के परम इष्टदेव और अंतःस्थित परमात्मा हैं। बाकी जो कुछ है वह विश्व में प्रकृति के नानात्व के प्राकट्य के लिये अपने-आपको सीमित करता है।

वे यह देखते हैं कि यह उन्हीं भगवान् की प्रकृति है जो विश्व में सब कुछ बनी हुई हैं, इसलिये यहाँ जो कुछ है, अंदर की असलियत में वही एक भगवान् है, सब कुछ वासुदेव है। और इस तरह वे भगवान् को केवल विश्व के परे रहने वाले परमेश्वर के रूप में ही नहीं बल्कि इस जगत में, एकमेव अद्वितीय रूप में तथा प्रत्येक जीव के रूप में पूजते हैं। वे इस तत्त्व को देखते, इसीमें रहते और कर्म करते हैं। वे उन्हीं सब पदार्थों के परे स्थित परम तत्त्व के तथा जगत् में स्थित ईश्वर के रूप में, और जो कुछ है उसे अधीश्वर के रूप में पूजते हैं, उन्हींमें रहते और उन्हींकी सेवा करते हैं। वे यज्ञकर्मों के द्वारा सेवा करते हैं, ज्ञान के द्वारा ढूंढ़ते हैं और सर्वत्र उन्हीं को देखते हैं, उनके सिवा और किसी चीज को नहीं और अपने जीवभाव तथा अपनी बाह्मांतर प्रकृति दोनों ही प्रकार से अपनी संपूर्ण सत्ता को उन्हीं की ओर उन्नत करते हैं। इसीको विशाल, प्रशस्त और सिद्ध मार्ग जानते हैं; क्योंकि यही एकमेव परतत्त्व-स्वरूप तथा विश्वस्थित परमेश्वर के संबंध में संपूर्ण सत्य का मार्ग है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्याय 9.4–11, 13–15, 34

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