गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग
अतं में, गीता ने विस्तार से यह बतलाया है कि संसार के सब पदार्थों में भगवान् का ही प्राकट्य हो रहा है और इन सब पदार्थोें का मूल उन्हीं एक भगवान् की ही प्रकृति, शक्ति और ज्योति है, क्योंकि सब पदार्थों को इस रूप में देखना भी भगवान् का ज्ञान प्राप्त करने के लिये अत्यंत आवश्यक है; इसी पर प्रतिष्ठित है समस्त भाव और समस्त प्रकृति का भगवान् की ओर पूर्ण रूप से मुड़ना, जगत् में भगवत शक्ति के कर्मों का मनुष्य के द्वारा स्वीकार किया जाना और उसके मन और बुद्धि का उस भगवत्कर्म के सांचे में ढल सकना जिसका आरंभ परम से होता है, हैतु जागतिक होता है और जो जीव से होकर जगत् को प्राप्त होता है। तात्पर्य, परम पुरुष परमेश्वर, विश्वचेतनातीत अक्षर आत्मा, मानव आधार में स्थित व्यष्टि-ईश्वर और विश्व-प्रकृति तथा उसके सब कर्मों और प्राणियों में गुप्त रूप से चैतन्यस्वरूप अथवा अंशतः आविर्भूत ईश्वर सब एक ही भगवान् हैं। परंतु इस एक ही भगवत्सत्ता के ये जो विभिन्न भाव हैं इनमें से किसी भी एक भाव को जो यथार्थ वर्णन हम पूर्ण विश्वास के साथ कर सकते हैं उसे जब भगवत्सत्ता के अन्य भावों पर घटाने का प्रयत्न करते हैं तब वह वर्णन उलट जाता या उसका अभिप्राय बदल जाता है। जैसे भगवान् ईश्वर हैं, पर इसलिये उनके उस ईश्वरत्व और प्रभुत्व को हम भगवत्सत्ता के इन चारों ही क्षेत्रों पर एक-सा, बिना किसी परिवर्तन के, यूं ही नहीं घटा सकते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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