गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग
ये सारे आध्यात्मिक अनुभव पहली दृष्टि में चाहै कितने ही परस्पर भिन्न या विरुद्ध हों, फिर भी इनका सामंजस्य हो सकता है यदि हम एकदेशीय बुद्धि से किसी एक पर ही जोर न दें, बल्कि इस सीधे-सादे सरल सत्य को समझ लें कि भगवत्तत्त्व विश्वब्रह्मांड की सत्ता से कोई महान् वस्तु है, परंतु फिर भी सारा विश्व और विश्व के सारे भिन्न-भिन्न पदार्थ भगवद्रूप ही हैं, और कुछ नहीं- हम कह सकते हैं कि वे भगवान् के ही द्योतक हैं। अवश्य ही भगवान् इन रूपों के किसी अंश में या इनके समुच्चय में पूर्णतया प्रकट नहीं हैं तथापि से रूप हैं उनके ही सूचक। यदि ये भगवत्सत्ता की ही कोई चीज न होते, बल्कि उससे भिन्न कोई दूसरी ही चीज होते तो ये भगवान् के सूचक न हो सकते। सत्यस्वरूप या सत्तत्त्व भगवान् ही हैं; और ये रूप तो उन्हीं के अभिव्यंजक सत्तत्त्व हैं।[1] वासुदेव सर्वमिति का यही अभिप्राय है, यह सारा जगत् जो कुछ है भगवान् हैं, इस जगत में जो कुछ है और इस जगत से जो कुछ अधिक है वह भी भगवान् हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ निरपेक्ष सत्य के सामने चाहै ये हमें अपेक्षाकृत असत् से ही प्रतीत होते हों, शंकरायार्य के मायावाद को उसके तार्किक आधार से अलग करके आध्यात्मिक अनुभति की दृष्टि से देखा जाये तो वह इसी सापेक्ष असत् का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मात्र प्रतीत होता है। मन-बुद्धि के परे इस तरह की कोई उलझन नहीं रहती क्योंकि वहाँ ऐसी कोई उलझन कभी थी नहीं। वहां, विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और दर्शनों या योगशास्त्रों को आधारभूत पृथक्-पृथक् अनुभूतियों का कुछ दूसरा ही रूप हो सकता है, उनसे निकलने वाले विभिन्न बौद्धिक सिंद्धात छूट जाते हैं और उनका समन्वय हो जाता है और जब ये अपनी उच्चतम समान प्रगाढ़ता को प्राप्त होते हैं तो अतिमानसिक अनंत में इनका एकीकरण होता है।
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