गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य
भगवदवतार जगद्गुरु श्रीकृष्ण, जो इस जगत्कर्म में मानव जीव के सारथी हैं, अपने रहस्य को, प्रकृति के गूढ़तम रहस्य को खोलने की भूमिका ही यहाँ तक बांधते चले आये हैं। इस भूमिका में उन्होंने एक तार बराबर बजता हुआ रखा है जिसका स्वर उनके समग्र स्वरूप के महान् चरम समन्वय की सूचना और पूर्वाभास बराबर देता रहा है। वह स्वर इस बात की झंकार है कि एक परम पुरुष परमेश्वर हैं जो मनुष्य और प्रकृति के अंदर निवास करते हैं पर प्रकृति और मुनष्य से महान् हैं, आत्मा के निवर्यक्तिक भाव की साधना से ही उनकी उपलब्धि होती है पर वह निर्व्यक्तिक भाव ही उनकी संपूर्ण सत्ता नहीं है। बार-बार बड़े आग्रह के साथ आने वाली उस बात का आशय अब यहाँ आकर खुलता है। ये ही विश्वात्मा और मनुष्य और प्रकृति में निवास करने वाले वह एकमेव परमेश्वर हैं जो रथपर आरूढ़ जगद्गुरु की वाणी के द्वारा यह बताने की भूमिका बांध रहे थे कि मैं सबका जागरित द्रष्टा और सब कर्मों का कर्ता हूँ। वे यही बतला रहे थे कि, ‘‘मैं जो तेरे अंदर हूं, जो मानवशरीर में यहाँ हूं, जिसके लिये यह सब कुछ है और जिसके लिये यह सारा कर्म और प्रयास हो रहा है, वही मैं एक ही साथ स्वयंभू आत्मा और इस अखिल विश्वकर्म का अंतःस्थित गूढ़ तत्त्व हूँ। यह “अहम्” (मैं) वह महान् अहम् है जिसका विशालतम मानव व्यक्तित्व केवल एक अंश और खंडमात्र आविर्भाव है, स्वयं प्रकृति उसकी एक कनिष्ठ कर्म-प्रणाली है। जीव का स्वामी, अखिल विश्वकर्म का प्रभु मैं ही एकमात्र ज्योति, एकमात्र शक्ति और एकमात्र सत्ता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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