गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य
अहंभावापन्न जीव को जो कुछ दुःख देता या मोहित करता है उससे इसे न कोई दुःख होता है न हर्ष, यह किसीका मित्र नहीं, किसीका शत्रु नहीं, क्योंकि वह अपने बहिमुर्ख मन में लिपटा है और अंतर्मुख होकर रहना नहीं सीखना चाहता या नहीं सीख पाया है; वह अपने-आपको अपने कर्म से अलिप्त नहीं रखता, उसे हटकर उसे प्रकृति का कर्म जानकर उसका साक्षी नहीं बनता। अहंकार ही बाधक है, भ्रांति के चक्र का यही अवैध बंध-विधान है; इस अहंकार जीव की आत्मा में लय हो जाना ही मुक्ति का आद्य साधन हैं बुद्धि और अहंकार मात्र ही बने रहना छोड़कर आत्मा हो जाना ही मुक्ति के इस संदेश का आद्य वचन है। इसलिये अर्जुन को यह आदेश हुआ कि वह पहले अपने कर्मों की सारी फलेच्छा त्याग दे और जो कुछ कर्तव्य कर्म है उसे ही निष्काम और निरपेक्ष भाव से करे, फल इस विश्व के सारे कर्मकलाप के स्वामी के लिये छोड़ दे। बहुत स्पष्ट है कि वह स्वयं स्वामी नहीं है, न उसकी इच्छाओं और पसंदों को पूरा करने के लिये ही विश्वजीवन चल रहा है, न बौद्धिक मत, निर्णय और मानों का समर्थन करने के लिये ही विश्वमनस कर्म कर रहा है और न उसकी जरा-सी बुद्धि के इजलास में विश्वमानस को अपने विश्वब्रह्मांडव्यापी उद्देश्य या अपनी जागतिक कर्मपद्वतियों और हैतुओं को पेश करना है। ऐसे दावे तो उन अज्ञानी जीवों के ही हो सकते हैं जो अपने व्यष्टिभाव में रहते हैं और उसीके अकिंचित् और अत्यंत संकुचित मान से ही सब बातें देखा करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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