गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य
अब तक जो प्रतिपादन हुआ उससे उसे यह पता चला कि वह अपने उस अज्ञान और अहंभवप्रयुक्त कर्म के द्वारा अनिवार्य रूप से बंधा नहीं है, जिससे वह तब तक संतुष्ट था जब तक उससे प्राप्त होने वाला आंशिक समाधान उसकी उस बुद्धि को संतुष्ट करने में अपर्याप्त न सिद्ध हुआ जो जगत्कर्म के अंग-स्वरूप परस्पर-विरोधी दृश्यों के संघर्ष से घबरायी हुई थी, तथा उस हृदय को जो कर्मों की जटिलता से परेशान होकर यह अनुभव कर रहा था कि इससे बचने का उपाय तो केवल जीवन और कर्म का संन्यास ही है। उसे यह समझा दिया गया है कि कर्म और जीवनपद्धति के दो परस्परविरोधी मार्ग हैं, एक अहंभावयुकत अज्ञान-दशा का और दूसरा दिव्य पुरुष के निर्मल आत्मज्ञान का। वह चाहै तो वासना-कामना, काम-क्रोध के वश में होकर निम्न प्रकृति के गुणों के द्वारा चालित ‘अहं’ रूप से, पाप-पुण्य और सुख-दुःखादि द्वन्द्वों के अधीन होकर, हार-जीत और सुफल-कुफल रूपकर्मफलों का ही चिंतन करते हुए, संसार-चक्र में बंधे रहकर, मनुष्य के मन, चित्त, अहंकार और बुद्धि को अपने सतत परिवर्तनशील और परस्परविरोधी रूपों और दृश्यों से चकरानेवाले कर्माकर्म और विकर्म के बड़े भारी जंजाल में पड़कर अपने कर्म कर सकता है। परंतु अज्ञान के इन कर्मों से वह सर्वथा बंधा नहीं है; वह चाहै तो ज्ञानयुक्त कर्म कर सकता है। चाहते तो मनीषी, ज्ञानी और योगी होकर तथा पहले मोक्ष का साधक बनकर और पीछे मुक्त होकर कर्म कर सकता है। इस महती संभावना को समझ लेना और अपनी मन-बुद्धि को ज्ञान और आत्म-दर्शन में स्थित करना ही-जिससे कि वह संभवना कार्यतः सिद्ध हो-दुःख और घबराहट से तथा मानव-जीवन के गोरखधंधे से निकलने का रास्ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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