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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर
हम विश्व की उत्पत्ति-प्रलय की इस धारणा को चाहै ग्रहण करें या अपने मन से हटा दें-क्योंकि यह इस पर निर्भर है कि हम-दिन ओर रात के जानने वालों के ज्ञान को कितना महत्त्व देते हैं- पर मुख्य बात तो यह है कि यहाँ गीता इस विषय को कैसा मोड़ देती है। अनायास कोई समझ सकता है कि यह सनातन अव्यक्त आत्मवस्तु, जिसका इस व्यक्ताव्यक्त जगत के साथ कुछ भी संबंध नहीं प्रतीत होता, वही अलक्षित अनिर्वचनीय निरपेक्ष ब्रह्मसत्ता हो सकती है, और उसे पाने का रास्ता भी यही हो सकता है कि हम अभिव्यक्ति में संभूतिरूप से जो कुछ बने हैं उससे छुटकारा पा लें, यह नहीं कि अपनी बुद्धि की ज्ञान-वृत्ति, हृदय की भक्ति, मन के योगसंकल्प और प्राण की प्राणशक्ति को एक साथ एकाग्र करके संपूर्ण अंतश्चेतना को उसकी ओर ले जायें। विशेषतः भक्ति तो उस निरपेक्ष ब्रह्म के संबंध में अनुपयुक्त ही प्रतीत होती है, क्योंकि वह सब संबंधों से परे है, ‘अव्यवहार्य’ है। ‘‘परंतु” गीता आग्रहपूर्वक कहती है कि यद्यपि यह स्थिति विश्वातीत और यह सत्ता सदा अव्यक्त है, तथापि ‘‘उन परम पुरुष को जिनमें सब भूत रहते हैं और जिनके द्वारा यह सारा जगत् विस्तृत हुआ है, अनन्य भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया जाता है।”[1] अर्थात् वह परम पुरुष सर्वथा संबंधरहित, निरपेक्ष, मायिक प्रपंचों से अलग नहीं है, बल्कि सर्व जगतों के दृष्टा-स्रष्टा और शासक हैं और उन्हींको ‘एक’ और ‘सर्व’-जानकर और उन्हींकी भक्ति करके हमें अपने संपूर्ण चित्त से सब पदार्थों, सब शक्तियों, सब कर्मों में उनके साथ योग के द्वारा अपने जीवन की परम चरितार्थता, पूर्ण सिद्धि, परमा मुक्ति प्राप्त करने में यत्नवान् होना चाहिये।
यहाँ अब और एक विलक्षण बात आती है जिसे गीता ने प्राचीन वेदांत के रहस्यवादियों से ग्रहण किया है। यहाँ उन दो विभिन्न कालों का निर्देश किया गया है जिनमें से कोई एक काल का योगी पुनर्जन्म लेने या न लेने के लिये इच्छानुसार चुनाव कर सकता है।
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