गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर
भगवान् कहते हैं, ‘‘जो कोई अंतकाल में इस शरीर को छोड़कर मेरा स्मरण करता हुआ प्रयाण करता है, वे मेरे भाव को प्राप्त होता है।” अर्थात् पुरुषोत्तम-भाव को, मद्भाव को प्राप्त होता है।[1] वह भगवान् के मूल स्वरूप के साथ एक होता है और यही जीव का परो भावः है, कर्म के अपने असली रूप में आकर अपने मूल की ओर जाने का परम फल है। जीव जब विश्वप्रकृति (अपरा प्रकृति ) की क्रीड़ा के पीछे-पीछे चलता है तब यह प्रकृति उसके पराप्रकृतिस्वरूप असली स्वभाव को ढांक देती है, इस तरह जीव का जो चित्स्वरूप है वह नानाविध भूतभाव को धारण करता, तत्तद्भाव को प्राप्त होता है। इन सब भावों को पार कर जब वह अपने मूल स्वरूप में लौट आता है और इस लौट आने की वृत्ति अर्थात् निवृत्ति से होकर अपने सत्स्वरूप और सदात्मा को पा लेता है तो वह उस मूल आत्मपद को प्राप्त करता है जो निवृत्ति की दृष्टि से परम भाव को, ‘मद्भाव’ को प्राप्त होना है। एक अर्थ में हम कह सकते हैं कि इस तरह वह ईश्वर हो जाता है, क्योंकि अपने प्राकृत स्वरूप और सत्ता के इस परम रूपांतर के द्वारा वह भगवान् के ही स्वरूप के साथ एक हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 8.5
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