गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 277

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर


मनुष्य संसार में जन्म लेकर प्रकृति और कर्म के चक्कर में लोक-परलोक के चक्कर काटता रहता है। प्रकृति में स्थित-पुरुष-यही उसका सूत्र होता है। उसकी आत्मा जो कुछ सोचती, मनन करती और कर्म करती है, वह वही हो जाता है। वह जो कुछ रहा है उसीसे उसका वर्तमान जन्म बना; और जो कुछ वह है, जो कुछ वह सोचता और इस जीवन में अपनी मृत्यु के क्षण तक करता है उसीसे, वह मृत्यु के बाद परलोकों में और अपने भावी जीवनों में जो कुछ बनने वाला है, वह निश्चित होगा। जन्म यदि ‘होना’ है तो मृत्यु भी एक ‘होना’ ही है, किसी प्रकार समाप्ति नहीं। शरीर छूट जाता है, पर जीव, शरीर को छोड़कर अपने रास्ते पर आगे बढ़ता है। इस लोक से प्रयाण करने के संधिक्षण में वह जो कुछ हो उसी पर बहुत कुछ निर्भर है। क्योंकि मृत्यु के समय जिस संभूति के रूप पर उसकी चेतना स्थिर होती है और मृत्यु के पूर्व जिससे उसकी मन-बुद्धि सदा तन्मय रहती आयी है उसी रूप को वह प्राप्त होता है ; क्योंकि प्रकृति कर्म के द्वारा जीव के सब विचारों और वृत्तियों को ही कार्यान्वित किया करती है और यही असल में प्रकृति का सारा काम है। इसलिये मानव-आधार में स्थित जीव यदि पुरुषोत्तम-पद लाभ करना चाहता है तो उसके लिये दो बातें जरूरी हैं, दो शर्तों का पूरा होना जरूरी है। एक यह कि इस पार्थिव लोक में रहते हुए उसका संपूर्ण आंतरिक जीवन उसी आदर्श के अनुकूल गढ़ा जाये; और दूसरी यह कि प्रयाण-काल में उसकी अभीप्सा और संकल्प वैसा ही बना रहे।

भगवान् कहते हैं, ‘‘जो कोई अंतकाल में इस शरीर को छोड़कर मेरा स्मरण करता हुआ प्रयाण करता है, वे मेरे भाव को प्राप्त होता है।” अर्थात् पुरुषोत्तम-भाव को, मद्भाव को प्राप्त होता है।[1] वह भगवान् के मूल स्वरूप के साथ एक होता है और यही जीव का परो भावः है, कर्म के अपने असली रूप में आकर अपने मूल की ओर जाने का परम फल है। जीव जब विश्वप्रकृति (अपरा प्रकृति ) की क्रीड़ा के पीछे-पीछे चलता है तब यह प्रकृति उसके पराप्रकृतिस्वरूप असली स्वभाव को ढांक देती है, इस तरह जीव का जो चित्स्वरूप है वह नानाविध भूतभाव को धारण करता, तत्तद्भाव को प्राप्त होता है। इन सब भावों को पार कर जब वह अपने मूल स्वरूप में लौट आता है और इस लौट आने की वृत्ति अर्थात् निवृत्ति से होकर अपने सत्स्वरूप और सदात्मा को पा लेता है तो वह उस मूल आत्मपद को प्राप्त करता है जो निवृत्ति की दृष्टि से परम भाव को, ‘मद्भाव’ को प्राप्त होना है। एक अर्थ में हम कह सकते हैं कि इस तरह वह ईश्वर हो जाता है, क्योंकि अपने प्राकृत स्वरूप और सत्ता के इस परम रूपांतर के द्वारा वह भगवान् के ही स्वरूप के साथ एक हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 8.5

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गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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