गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर
हमारे आत्मसमर्पण में समग्र ज्ञान का होना उसकी कार्यक्षम शक्ति की पहली शर्त है। और इसलिये हमें सबसे पहले इस पुरुष को तत्त्वतः अर्थात् इसकी भागवत सत्ता की सब शक्तियों और तत्त्वों के रूप में, इसके संपूर्ण सामंजस्य के रूप में, इसके सनातन विशुद्ध स्वरूप तथा जीवनलीला के रूप में जाना होगा। परंतु प्राचीन मनीषियों की दृष्टि में इस तत्त्वज्ञान का सारा मूल्य बस इस मर्त्य जगत् से मुक्त होकर एक परम जीवन के अमृतत्त्व को प्राप्त करने की साधना में ही निहित था। इसलिये गीता अब यह बतलाती है कि यह मुक्ति भी, इस मुक्ति की परमावस्था भी किसी प्रकार गीता की अपनी आध्यात्मिक आत्मपरिपूर्णता की साधना का एक परम फल है। यहाँ गीता के कथन का यही आशय है कि पुरुषोत्तम का ज्ञान ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान है। जो मुझे अपनी दिव्य ज्योति अपना उद्धार कर्ता, अपनी अंतरात्माओं को ग्रहण और धारण करने वाला मानकर मेरी शरण लेते हैं-भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि, जो जरामरण से, मर्त्य जीवन और उसकी सीमाओं से मुक्त होने के लिये मेरा आश्रय लेकर साधन करते हैं वे उस ब्रह्म को, संपूर्ण अध्यात्म-प्रकृति और अखिल कर्म को जान लेते हैं। और चूंकि वे मुझे जानते हैं और साथ ही जीव की अपरा प्रकृति और परा प्रकृति तथा यज्ञस्वरूप इस जगत्कर्म के स्वामी की सत्यता को जानते हैं, अतः वे इस भौतिक जीव से प्रयाण करने के नाजुक समय भी मेरा ज्ञान रखते हैं और उस क्षण में उनकी संपूर्ण चेतना मेरे साथ एक हो जाती है। अतः वे मुझे प्राप्त होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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