गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां
अतः काम का अभिप्राय यहाँ हमारे अंदर रही हुई उस सहेतुक भगवदिच्छा से है जो निम्न प्रकृति के आमोद की नहीं बल्कि अपनी ही क्रीड़ा और आत्मपूर्णता के आनंद की खोज करती और उसे ढ़ूंढ़ निकालती है; यह जीवलीला के उस दिव्य आनंद की कामना है जो स्वभाव के विधान के अनुसार अपनी सज्ञान कर्म शक्ति को प्रकट कर रहा है। पर फिर इस कथन का क्या अभिप्राय है कि भगवान् भूतों में, अपरा प्रकृति के रूपों और भावों में, सात्त्विक भावों तक में नहीं हैं, यद्यपि वे सब हैं उन्हीं की सत्ता के अंदर? एक अर्थ से तो भगवान् का उनके अंदर होता स्पष्ट ही अनिवार्य है, क्योंकि इसके बिना उन सब पदार्थों का रहना ही संभव नही हो सकता। अभिप्राय तब यही हो सकता है कि भगवान् की जो वास्तविक परा आत्मप्रकृति है उस रूप में भगवान् उनके अंदर कैद नहीं हैं; बल्कि ये सब विकार उन्हीं की सत्ता में अहंकार और अज्ञान के कर्म द्वारा उत्पन्न होते हैं। अज्ञान में सभी चीजें उल्टी दिखायी देती हैं और एक प्रकार की मिथ्या की ही अनुभूति होती है। हम लोग समझते हैं कि जीव इस शरीर के अंदर है, शरीर का ही एक परिणाम और विकार है; ऐसा ही हम उसे अनुभव भी करते हैं; पर सच तो यह है कि जीव के अंदर शरीर है और वही जीव का परिणम और विकार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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