गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां
यही एक परा शक्ति केवल सबके अंदर रहने वाली एक आत्मा के रूप में ही नहीं बल्कि प्रत्येक प्राणी और पदार्थ के अंदर जीव-रूप से, व्यष्टि-पुरुष-सत्ता के रूप से भी प्रकट होती है; यही प्रकृति के संपूर्ण त्रैगुण्य के बीज-तत्त्व-रूप से प्रकट होती है। अतएव प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ के पीछे ये ही छिपी हुई अध्यात्म शक्तियां हैं। त्रैगुण्य का यह परम बीज तत्त्व त्रिगुण का कर्म नहीं, त्रिगुण-कर्म तो गुणों का ही व्यापार है, उनका आध्यात्मिक तत्त्व नहीं वह बीज-तत्त्व अंतस्थित आत्मतत्त्व है जो एक है, पर फिर भी इन बाह्म नाना नाम-रूपों की वैचित्र्यमयी अंतः शक्ति भी है। यह संभूति का, भगवान के द्वार भाव का मूलभूत सत्तत्त्व है और यही सत्तत्त्व अपने इन सब नाम-रूपों को धारण करता है और इसीके अंदर अहंकार, प्राण और शरीर के केवल बाह्य अस्थिर भाव हैं- सात्तिवका भावा राजसास्तामसाश्च। परंतु यह बीजभूत का मूल विधान करने वाला यही स्वभाव है। यही अंतःशक्ति है; प्रकृति के संपूर्ण कर्म का यही बीज और यही उसके विकास का कारण है। प्रत्येक प्राणी के अंदर यह तत्त्व छिपा हुआ है, यह परात्पर भगवान् के ही आत्माविर्भाव से, मद्भाव, से निकलता और उससे संबद्ध रहता है। भगवान् के इस मद्भाव के साथ और स्वभाव का बाह्य भूतभावों के साथ अर्थात् भगवान् की परा प्रकृति का व्यष्टिपुरुष की आत्मप्रकृति के साथ और इस विशुद्ध मूल आत्मप्रकृति का त्रिगुणात्मिका प्रकृति की मिश्रित और द्वन्द्वमयी क्रीड़ा के साथ संबंध है उसीमें उस परा परा शक्ति और इस अपरा प्रकृति के बीच की लड़ी मिलती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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