गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 256

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां


सभी प्राणी उसी एक अविभेद्य परमात्मा की सत्ता से व्याप्त हैं; सबकी व्यष्टि-सत्ता, सबके कर्म और रूप उसी एक पुरुष की सनातन अनेकता के आधार पर खड़े हैं। हम समझने में कहीं यह भूल न कर बैठें कि यह परा प्रकृति काल में अभिव्यक्त जीवमात्र है और कुछ नहीं अथवा यह कि यह केवल संभूति की ही प्रकृति है और आत्मसत्ता की नहीं: परम पुरुष की परा प्रकृति का इतना ही स्वरूप नहीं हो सकता। काल में भी यह परा प्रकृति इससे कुछ अधिक है; यदि ऐसा न हो तो विश्वरूप से इसका यही सत्य हुआ कि जगत् में अनेकता की ही प्रकृति है और यहाँ एकत्व धर्मवाली प्रकृति है ही नहीं। परंतु गीता का यह अभिप्राय नहीं है-गीता यह नहीं कहती परा प्रकृति स्वयं ही जीव है, जीवात्मकाम, बल्कि यह कहती है कि वह जीव बन गयी है, इस जीवभूता शब्द में ही यह ध्वनि है कि अपने इस बाह्यत: प्रकट जीवरूप के पीछे यह परा प्रकृति इससे भिन्न्न और कोई बड़ी चीज है, यह एकमेवाद्वितीय परम पुरुष की निज प्रकृति है। गीता ने आगे चलकर बतलाया है कि यह जीव ईश्वर है, पर ईश्वर है उनकी आंशिक अभिव्यक्ति के रूप में, ममैवाश: ब्रह्मांड अथवा अनंत कोटि-ब्रह्मांडों के सब जीव मिलकर भी अपने अभिव्यक्ति-रूप में समग्र भगवान् नहीं हो सकते, सब मिलकर उस अनंत एकमेवा-द्वितीय के अंश का आविर्भाव ही हैं।

उनके अंदर ‘एक’ और अविभक्त ब्रह्म मानो विभक्त की तरह रहता है, अविभक्तं च भूतेषु विभक्त्मिव च स्थितम्[1] यह एकत्व महत्तर सत्य है, अनेकत्व उससे लघुतर सत्य है; यद्यपि हैं दोनों सत्य ही, उनमें से कोई भी मिथ्या-माया नहीं है। इस अध्याय-प्रकृति का एकत्व ही इस जगत् को धारण किये रहता है, ययेदं धार्यते जगत; सब भूतभावों के साथ इस जगत् की उत्पत्ति उसीसे होती है, और उसीमें प्रलयकाल में सारे जगत् और उनके प्राणियों का लय होता है, अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्थ्ता[2]परंतु इस दृश्य जगत् में, जो आत्मा से प्रकट होता है, उसी के सहारे कर्म करता है और प्रलय काल में कर्म से निवृत्त होता है, वह जीव ही नानातव का आधार है; उसे, जिसको हम यहाँ अनुभव करते हैं, हम चाहें तो बहु पुरुष कह सकते हैं अथवा नानात्व का अंतरात्मा भी कह सकते हैं। वह अपने स्वरूप से भगवान् के साथ एक है, भिन्न है केवल अपने स्वरूप की शक्ति से-इस अर्थ में भिन्न नहीं कि वह एकदम वही शक्ति नहीं है, बल्कि इस अर्थ में कि वह केवल उसी एक शक्ति के लिये आंशिक बहुविध व्यष्टिभूत कर्म में आधार का काम करता है। इसलिये सभी पदार्थ आदि में, अंत में और अपने स्थितिकाल में तत्त्वतः आत्मा या ब्रह्म ही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 13.17
  2. 7. 6

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गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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