गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द24.कर्मयोग का सारतत्त्व
यह हमारी प्रकृति की ही इच्छा होती है; इसे हम अपनी इच्छा कहते हैं, पर हमारा अहंभावापन्न व्यक्तित्व तो प्रकृति की ही एक रचना है, यह हमारी मुक्त आत्मा, हमारी स्वाधीन सत्ता नहीं है और न हो सकता है। यह सारा प्रकृति के गुणों का कर्म है। यह कर्म तामसिक हो सकता है और तब हमारा व्यक्तित्व जड़त्व, वस्तुओं की यांत्रिक धारा के वशवर्ती और उसीसे संतुष्ट, किसी अधिक स्वाधीन कर्म और प्रभुत्व का कोई प्रबल प्रयास करने में सर्वथ आसमर्थ होता है। अथवा यह कर्म राजसिक हो सकता है और तब हमारा व्यक्तित्व अशांत और कर्मप्रवण होता है, जो अपने-आपको प्रकृति पर लादना और उससे अपनी आवश्यकताएं और इच्छाएं पूरी करना चाहता है, पर यह नहीं देख पाता कि उसका यह प्रभुत्वाभास भी एक दासत्त्व ही है, क्योंकि उसकी आवश्यकताएं और इच्छाएं वे ही हैं जो प्रकृति की आवश्यकताएं और इच्छाएं हैं, और जब तक हम उनके वश में हैं तब तक हमें मुक्ति नहीं मिल सकती। अथवा यह कर्म सात्त्विक हो सकता है और तब हमारा व्यक्तित्व प्रबुद्ध होता है, जो बुद्धि के द्वारा अपना जीवन बिताने और किसी शुभ, सत्य या सुन्दर के ईप्सित आदर्श को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है; पर अब भी यह बुद्धि प्रकृति के रूपों के ही वश में होती है और ये आदर्श हमारे अपने ही व्यष्टिस्वरूप के परिवर्तनशील भाव होत हैं जिनमें अंततोगत्वा कोई ध्रुव नियम नहीं मिलता, न सदा के लिये संतोष ही मिलता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज