गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 236

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

23.निर्वाण और संसार में कर्म

संसार-प्रेम तब आध्यात्मिक प्रेम में परिवर्तित होकर इन्द्रियानुभाव से आत्मानुभव हो जाता है और वह ईश्वर-प्रेम की नींव पर प्रतिष्ठित रहता है और तब उस प्रेम में कोई भय, कोई देाष नहीं होता। निम्न प्रकृति से पीछे हटने के लिये संसार से भय और जुगुप्सा प्रायः आवश्यक हो सकते हैं, क्योंकि वास्तव में यह हमारा अपने अहंकार से भीत और जुगुप्सित होना है और अपने को जगत् में प्रतिबिंबित करना है। परंतु ईश्वर को जगत् में देखना निर्भय होना है, यह सब कुछ का ईश्वर की सत्ता में आलिंगन करना है; सब कुछ भगवद्रूप में देखने का अर्थ है किसी पदार्थ को नापसंद न करना या किसी से घृणा न करना, बल्कि जगत् में भगवान् से और भगवान् में जगत् से प्रेम करना। परंतु कम-से-कम निम्न प्रकृति के उन विषयों का तो परिहार करना और उनसे डरना ही होगा जिनसे ऊपर उठने के लिये योगी ने इतनी कड़ी साधना की थी? नहीं, यह भी नहीं; आत्मदर्शन की समता में सब कुछ का आलिंगन किया जाता है। भगवान् कहते हैं, ‘‘हे अर्जुन, जो कोई सब कुछ को आत्मा की तरह समभाव से देखता है चाहे वह दुःख हो या सुख, उसे मैं परम योगी मानता हूँ।”[1] और, इससे यह अभिप्रेत नहीं है कि स्वयं योगी दूसरों के दुःख में ही क्यों न हो, अपने दुःखरहित आत्मानंद से गिर जायेगा और फिर से सांसारिक दुःख अनुभव करेगा, बल्कि यह कि दूसरों में उन द्वन्द्वों के खेल को देखकर, जिन्हें छोड़कर वह स्वयं ऊपर उठ चुका है।

वह सब कुछ आत्मवत् और सबमें अपनी आत्मा को, सबमें ईश्वर को देखेगा और इन चीजों के बाह्य रूपों या मुग्ध होकर केवल करुणा से उनकी मदद करने, उनका दुःख दूर करने, सब प्राणियों के कल्याण में अपने-आपको लगाने में, लोगों को आध्यात्मिक आनंद की ओर जाने में, जगत् को भगवान् की ओर अग्रसर करने के काम में प्रवृत्त होकर जितने दिन उसे इस जगत् में रहना है उतने दिन अपने जीवन को दिव्य जीवन बनाकर रहेगा। जो भगवतप्रेमी ऐसा कर सकता है, इस प्रकार सब कुछ का भगवान् के अदंर आलिंगन कर सकता है, निम्न प्रकृति और त्रिगुणात्मिका माया के सब कर्मों की ओर स्थिर होकर देख सकता और, बिना क्षुब्ध हुए तथा आध्यात्मिक ऐक्य की उचांई से मुग्ध या च्युत हुए बिना, भगवान् की अपनी दृष्टि की विशालता में स्वतंत्र भाव से रहते हुए, भागवत प्रकृति की शक्ति से मधुर, महान् और प्रकाशमय होकर उन कर्मों के अंदर और उन कर्मों पर क्रिया कर सकता है, उसको निःसंकोच परम योगी कहा जा सकता है। यथार्थ में उसीने सृष्टि को जीता है। गीता ने सर्वत्र वैसे ही यहाँ भी भक्ति को योग की पराकाष्ठा कहा है सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।”[2]गीता की शिक्षा का यही संपूर्ण सार-सर्वस्व कहा जा सकता है-जो सबमें स्थित भगवान् से प्रेम करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 6.32
  2. 6.31

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क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
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2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
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17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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