गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द23.निर्वाण और संसार में कर्म
ये सब मन समाधि की ओर ले जाने वाली प्रक्रियाएं हैं, इन सबका लक्ष्य मोक्ष है और सामान्य व्यवहार की भाषा में मोक्ष कहते हैं। संपूर्ण कर्म-चैतन्य के त्याग को,परब्रह्म में अपनी सत्ता के संपूर्ण अस्तित्व का लय कर देने को, केवल पृथक्कारी अहं-चैतन्य के त्याग को नहीं, तब क्या हम यह समझें कि गीता ने यहाँ इसका विधान इस अभिप्राय से किया है कि इसी लय को मुक्ति का चरम उपाय मानकर ग्रहण किया जाये या इस अभिप्राय से कि यह बहिर्मुख मन को वश में करने का केवल एक उपाय या शक्तिशाली साधन मात्र है? क्या यही आखिरी बात, परम वचन या महाकाव्य है? हम इसे दोनों ही मान सकते हैं एक विशोष उपाय, एक विशिष्ट साधन भी और अंततः चरम गति का एक द्वार भी; अवश्य ही इस चरम गति का साधन लय हो जाना नहीं है, बल्कि विश्वातीत सत्ता में ऊपर उठ जाना है। क्योंकि यहाँ इस श्लोक में भी जो कुछ कहा गया है वह आखिरी बात नहीं है; महाकाव्य, आखिरी बात, परम वचन तो इसके बाद के श्लोक में आता है जो इस अध्याय का अंतिम श्लोक है। वह श्लोक है- अर्थात् ‘‘जब मनुष्य मुझे सब यज्ञों और तपों का भोक्ता, सब लोकों का महेश्वर, सब प्राणियों का सुहृद जानता है वह शांति को प्राप्त होता है।” यहाँ कर्मयोग की शक्ति ही फिर से आ जाती है; यहाँ इस बात पर आग्रह किया गया है कि ब्रह्मनिर्वाण की शांति के लिये यह आवश्यक है कि जीव को सक्रिय ब्रह्म का, विराट पुरुष का ज्ञान भी हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज