गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द23.निर्वाण और संसार में कर्म
संसार में कर्म करना ब्राह्मी स्थिति से विसंगत नहीं है, बल्कि उस अवस्था की अपरिहार्य शर्त और ब्रह्म परिणाम है, क्योंकि जिस ब्रह्म में निर्वाण लाभ किया जाता है वह ब्रह्म, जिस आत्म-चैतन्य में हमारा पृथक् अहंभाव विलीन हो जाता है वह आत्म-चैतन्य केवल हमारे अंदर ही नहीं है, बल्कि इन सब भूत प्राणियों में भी है। वह इन सब जगत्-प्रपंचों से केवल पृथक् और इनके ऊपर ही नहीं है, बल्कि इन सबमें व्याप्त है; इन्हें धारण किये हुए है और इनमें प्रसारित है। इसलिये ब्रह्मनिर्वाण-पद का अर्थ उसी सीमित पृथक्कारी चेतना का नाश या निर्वाण समझाना होगा जो सारे भ्रम और भेदभव का कारण है और जो जीवन के बाह्य स्तर पर त्रिगुणात्मिका निम्नतर माया की एक रचनामात्र है। और इस निर्वाण-पद में प्रवेश उस एकत्वसाधक परम सच्चैतन्य की प्राप्ति का रास्ता है जो समस्त सृष्टि का हृदय और आधार है, और जो उसका सर्वसमाहारक, सर्वसहायक, समग्र मूल सनातन परम सत्य है। जब हम निर्वाण लाभ करते और उसमें प्रवेश करते हैं तब निर्वाण केवल हमारे अंदर ही नहीं रहता बल्कि हमारे चारों ओर भी रहता है, क्योंकि यह केवल यह ब्रह्म-चैतन्य नहीं है जो हमारे अंदर गुप्त रूप से रहता है, बल्कि यह वह ब्रह्म-चैतन्य है जिसमें हम सब रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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