गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द22.त्रैगुणातीत्य
यदि यह कहा जाये, जैसा कि कहा जा चुका है, कि प्रकृति अपने विधानों को पूरा करने के लिये मनुष्य को भ्रम में डालती है और इस प्रकार के भ्रमों में व्यष्टिगत इच्छा की भावना सबसे जबर्दस्त भ्रम है, तो इसके साथ यह भी कहना होगा कि यह भ्रम उसके भले के लिये है और इसके बिना वह अपनी पूर्ण संभावनाओं के उत्कर्ष को नहीं प्राप्त हो सकता। परंतु यह निरा भ्रम नहीं है, केवल दृष्टिकोण और नियोजन की ही भूल है। अहंकार समझता है कि मैं ही वास्तविक आत्मा हूँ और इस तरह कर्म करता है मानो कर्म का वास्तविक केंन्द्र वही है और सब कुछ मानो उसीके लिये है और यहीं वह दृष्टिकोण और नियोजन की भूल करता है।यह सोचना गलत नहीं है कि हमारे अंदर, हमारी प्रकृति के कर्म इस कर्म में कोई चीज या कोई पुरुष ऐसा है जो हमारी प्रकृति के कर्म का वास्तविक केन्द्र है और सब कुछ उसीके लिये है; परंतु वह केन्द्र अहंकार नहीं, बल्कि हृद्देशस्थित निगूढ़ ईश्वर है और वह दिव्य पुरुष और जीव है जो अहंकार से पृथक् दिव्य पुरुष की सत्ता का ही एक अंश है। अहंकार का स्वत्व-प्रकाश हमारे मन पर उस सत्य की एक भग्न और विकृत छाया है जो बतलाता है कि हमारे अंदर एक सदात्मा है जो सबका स्वामी है और जिसके लिये तथा जिसके आदेश से ही प्रकृति अपने कर्म में लगी रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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