गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द21.प्रकृति का नियतिवाद
उसकी (निम्नतर ) आत्मा उसके लिये शत्रु जैसी है और वह शत्रुवत् आचरण करती है।’’[1]जब कोई अपनी आत्मा को जीत लेता है और पूर्ण आत्मजय और आत्मवत्ता की अविचल स्थिति को प्राप्त होता है तब उसकी परम आत्मा उसकी नीम आत्मा उसकी बाह्य सचेतन मानव-सत्ता में भी स्थिर-प्रतिष्ठित अर्थात् ‘समाहित‘ हो जाती है। दूसरे शब्दों में निम्नतर आत्मा को उच्चतर आत्मा से, प्राकृत आत्मा को आध्यात्मिक आत्मा के वश में करना ही मनुष्य ही सिद्धि और मुक्ति का मार्ग है। यहाँ प्रकृति के नियतिवाद की मर्यादा बांध दी गयी है, उसके क्षेत्र और अर्थ का सीमांकन किया गया है। यदि हम प्रकृति के सोपान में नीचे से ऊपर तक गुणों की क्रिया का निरीक्षण करें तो अधीनता से प्रभुत्व तक के संक्रमण को अच्छी तरह समझ सकेंगे। सबसे नीचे वे जीव हैं जिनमें तमोगुण का तत्त्व मुख्य है, ये वे प्राणी हैं जो अभी आत्मचैतन्य के प्रकाश तक नहीं पहुँचे और जो पूरी तरह प्रकृति के प्रवाह के द्वारा ही चालित होते हैं। परमाणु के अंदर भी एक इच्छाशक्ति है, पर यह स्पष्ट हो दीख पड़ता है कि यह स्वाधीन इच्छाशक्ति नहीं है, क्योंकि यह इच्छाशक्ति यंत्रवत् है और परमाणु इस पर स्वत्व नहीं रखता, बल्कि खुद ही इसके अधिकार में होता है। बुद्धि, जो प्रकृति के अंदर बोध और संकल्प का तत्त्व है वह यहाँ वास्तव में स्पष्ट रूप से, जैसा कि सांख्य ने बताया है, जड़ है, यह अभी यांत्रिक, बल्कि अचेतन तत्त्व है, और इसमें सचेतन आत्मा के प्रकाश ने अभी तक ऊपरितल पर आने के लिये कोई प्रयास नहीं किया है। परमाणु अपने बुद्धितत्त्व से सचेतन नहीं है, वह उस तमोगुण के कब्जे में है जिसने रजोगुण का पकड़ रखा है, सत्त्वगुण को अपने अंदर छिपा रखा है और स्वयं अपने प्रभुत्व का महान् उत्सव मनाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 65, 6
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