गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
उसने सबके साथ अपनी एकता का अनुभव किया है इसलिये उसकी समता सबके साथ सहानुभूति और एकता से परिपूर्ण वह सबको अपने जैसा देखता है और अपने अकेले की मुक्ति का इच्छुक नहीं होता वह दूसरों के सुख-दुःखों का बोझ तक अपने ऊपर उठा लेता है और स्वयं न उससे प्रभावित होता है न उसके अधीन। गीता ने बार-बार इस बात को दुहराया है कि सिद्ध ज्ञानी सदा अपने उदार समत्व में स्थिर रहता हुआ सब जीवों के कल्याण-साधन में लगा रहता है, सिद्ध योगी आध्यात्मिक एकांत की किसी भव्य अट्टालिका पर आत्मा के ध्यान में मग्न होकर नहीं बैठा रहता, बल्कि जगत के कल्याण के लिये, जगन्निवास भगवान् के लिये बहुविध विश्वव्यापी कर्मों का कर्ता होता है। क्योंकि वह प्रेमी और उपासक भक्त है, ज्ञानी है और योगी भी-ऐसा प्रेमी जो भगवान् से वे जहाँ मिल जाये प्रेम करता है और भगवान् उसे हर जगह मिलते हैं; और जिससे वह प्यार करता है उसकी सेवा कने से विमुख नहीं होता। जो कर्म उसके द्वारा होता है वह उसे भगवान् के साथ एकत्व के आनंद से अलग नहीं करता, क्योंकि उसके सारे कर्म उसके अंदर स्थित उन्हीं एक से निकलते और सबके अंदर रहने वाले उन्हीं की ओर प्रवाहित होते हैं। गीता का मत्व उदार समन्वयात्मक समत्व है, जो सबके भागवत सत्ता और भागवत प्रकृति की पूर्णता में ऊंचा उठा देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.60
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