गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 190

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

19.समत्व


दार्शनिक अपनी विवेकवती बुद्धि के बल से अपने समत्व को बनाये रहते हैं परंतु यह अपने-आपको एक संदिग्ध नींव है। क्योंकि यद्यपि सतत सावधान रहकर और मन को अभ्यस्त करके वे अपने-आप पर एक प्रकार का काबू रखते हैं, पर वास्तव में वे अपनी निम्न प्रकृति से मुक्त नहीं होते, और यह प्रकृति कई तरह से अपनी सत्ता दिखाती रहती है और अपने त्यागे जाने और निगृहीत किये जाने के किसी भी समय भयानक प्रितिशोध ले सकती है। कारण निम्न प्रकृति का खेल सदा ही त्रिगुणात्मक है और रजोगुण तथा तमोगुण सात्त्विक मनुष्य पर हमला करने के लिये सदा घात लगाये रहते है। ‘‘सिद्धि के साधन में यत्नशील बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी हठी इन्द्रियां जबरदस्ती खींच ले जाती हैं।”[1]निम्न प्रकृति से पूर्ण सरंक्षण तो किसी सत्त्वगुण से भी बड़ी चीज का, विवेक- बुद्धि से भी बड़ी चीज का, अर्थात्-आत्मा का-दार्शनिकों के बुद्धि-पुरुष का नहीं बल्कि दिव्य ज्ञानी की त्रिगुणातीत आध्यात्मिक आत्मा का-आश्रय लेने से ही प्राप्त होता है। इन सबकी परिपूर्ति उसी आध्यात्मिक परा प्रकृति में जन्म लेने से ही करनी होगी। दार्शनिकों की समता स्टोइक के जैसी, जगत् से भागने वाले सतीवैरागी-संन्यासियों की-सी होती है, जो मनुष्य से अलग, उनसे बिलकुल दूर एक आंतरिक, निर्जन स्वातंत्र्य है; पर जिस मनुष्य का दिव्य जन्म हुआ है उसने भगवान् को केवल अपने ही अंदर नहीं, बल्कि सभी जीवों में उपलब्ध किया है।

उसने सबके साथ अपनी एकता का अनुभव किया है इसलिये उसकी समता सबके साथ सहानुभूति और एकता से परिपूर्ण वह सबको अपने जैसा देखता है और अपने अकेले की मुक्ति का इच्छुक नहीं होता वह दूसरों के सुख-दुःखों का बोझ तक अपने ऊपर उठा लेता है और स्वयं न उससे प्रभावित होता है न उसके अधीन। गीता ने बार-बार इस बात को दुहराया है कि सिद्ध ज्ञानी सदा अपने उदार समत्व में स्थिर रहता हुआ सब जीवों के कल्याण-साधन में लगा रहता है, सिद्ध योगी आध्यात्मिक एकांत की किसी भव्य अट्टालिका पर आत्मा के ध्यान में मग्न होकर नहीं बैठा रहता, बल्कि जगत के कल्याण के लिये, जगन्निवास भगवान् के लिये बहुविध विश्वव्यापी कर्मों का कर्ता होता है। क्योंकि वह प्रेमी और उपासक भक्त है, ज्ञानी है और योगी भी-ऐसा प्रेमी जो भगवान् से वे जहाँ मिल जाये प्रेम करता है और भगवान् उसे हर जगह मिलते हैं; और जिससे वह प्यार करता है उसकी सेवा कने से विमुख नहीं होता। जो कर्म उसके द्वारा होता है वह उसे भगवान् के साथ एकत्व के आनंद से अलग नहीं करता, क्योंकि उसके सारे कर्म उसके अंदर स्थित उन्हीं एक से निकलते और सबके अंदर रहने वाले उन्हीं की ओर प्रवाहित होते हैं। गीता का मत्व उदार समन्वयात्मक समत्व है, जो सबके भागवत सत्ता और भागवत प्रकृति की पूर्णता में ऊंचा उठा देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.60

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क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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