गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 176

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

18.दिव्य कर्मी


पशु में, मनुष्य में, अशुचि-अंतयज में, विद्वान् और पुण्यात्मा ब्राह्मण में, महात्मा और पापात्मा में, मित्र शत्रु और तटस्थ में, जो उसे प्यार करते और उसका उपकार करते हैं उनमें और जो उससे घृणा करते और उसे पीड़ा पहुँचाते हैं। उनमें, वह अपने-आपको देखता है, ईश्वर को देखता है और उसके हृदय में सबके लिये एक-सी दिव्य करुणा और दिव्यप्रीति होती है। परिस्थिति के अनुसार बाह्मतः वह किसी को अपनी छाती से लगा सकता है अथवा किसी से युद्ध कर सकता है पर किसी हालत में उसकी समदृष्टि में कोई अंतर नहीं पड़ता, उसका हृदय सबके लिये खुला रहता है, उसका अंतर सबको गले लगाये रहता है। और उसके सब कर्मों में एक ही अध्यात्मतत्त्व अर्थात् पूर्ण समत्व काम करता है और एक ही कर्मतत्त्व काम करता है अर्थात वह भगवत्-संकल्प जो भगवान् की ओर क्रमशः अग्रसर होती हुई मानवजाति की सहायता के लिये उसके अंदर से क्रियाशील है। फिर दिव्य कर्मी का लक्षण वह है जो स्वयं भागवत चेतना का कैन्द्रिक लक्षण है, अर्थात् पूर्ण आंतर आनंद और शांति। ये निर्विषय होते हैं, इनकी उत्पत्ति या स्थिति जगत् के स्थित पदार्थ पर निर्भर नहीं ये स्वाभाविक होते हैं, अंतरात्मा के उपादान और दिव्य सत्ता के स्वरूप होते हैं।

सामान्य मनुष्य अपने सुख के लिये बाह्य पदार्थों पर निर्भर है; इसीसे उसमें वासना-कामना होती है, इसीसे उसमें क्रोध-क्षोभ, सुख-दुःख, हर्ष-शोक होते हैं, इसलिये वह सब वस्तुओं को शुभा-शुभ के कांटे से तौलता है। परंतु दिव्य आत्मा पर इनमें से किसी का कोई असर नहीं पड़ सकता; वह किसी प्रकार की निर्भरता के बिना सदा तृप्त रहता है, क्योंकि उसका आनंद, उसकी दिव्य तृप्ति, उसका सुख, उसकी सुप्रसन्न ज्योति सदा उसके अंदर वर्तमान है, उसके रोम-रोम में व्याप्त है, आत्मरति:, अंत: सुखोऽन्तरारामस्तयांतर्ज्योतिरेव य:। वह बाह्य पदार्थों में जो सुख लेता है वह उनके कारण नहीं होता, उस रस के लिये नहीं जिसे वह उनमें ढूंढ़ता और खो भी सकता है, बल्कि उनमें स्थित आत्मा के लिये, उनके द्वारा भगवान् की अभिव्यक्ति के लिये, उनमें स्थित शाश्वत तत्त्व के लिये होता है, जिसे वह कभी नहीं खो सकता है। इन पदार्थों के बाह्य स्पर्शों में उसकी आसक्ति नहीं होती, बल्कि अपने अंदर मिलने वाला आनंद ही उसे सर्वत्र मिलता है; क्योंकि उसकी आत्मा ही उनकी आत्मा है, वह चराचर प्राणियों की आत्मा के साथ एक हो गया है ‘उनके विभिन्न नामरूपों के हाते हुए भी उनके अंदर जो समब्रह्म है उसके साथ वह एक हो गया है, ब्रह्मयोग्युक्तात्मा, सर्वभूतात्मभूतात्मा। प्रिय पदार्थ के स्पर्श से उसे हर्ष नहीं होता, अप्रिय से उसे शोक नहीं होता; पदार्थ के, मित्रों के या शत्रुओं के घाव उसकी दृष्टि की स्थिरता भंग नहीं कर सकते, न उसके हृदय को मोहित कर सकते हैं; उपनिषद् के शब्दों में यह आत्मा अपने स्वरूप से ‘अव्रणम्’ होता है, उस पर कोई घाव, कोई क्षति नहीं होता। वह सब पदार्थों में वही अक्षय आनंद भोग करता है, सुखमक्षयमश्नुते

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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