गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द18.दिव्य कर्मी
अर्जुन को युद्ध के आदेश के साथ-साथ विजय का आश्वासन भी प्राप्त है; पर यदि उसकी हार होनी होती तो भी उसका कर्तव्य युद्ध ही होता; क्योंकि जिन क्रियाशक्तियों के समूह के द्वारा भगवान् का संकल्प सफल होता है उसमें तत्काल भाग लेने के लिये अर्जुन को उस समय यह युद्ध-कर्म सौंपा गया। मुक्त पुरुष की व्यक्त्गित आशा-आकांक्षा नहीं होती; वह चीजों को अपनी वैयक्त्कि संपत्ति जानकर पकड़े नहीं रहता; भगवत्सकंल्प जो ला देता है वह उसे ग्रहण करता है, वह किसी वस्तु का लोभ नहीं करता, किसी से डाह नहीं करता; जो कुछ प्राप्त होता है उसे वह राग-द्वेषरहित होकर ग्रहण करता है; जो कुछ चला जाता है उसे संसार-चक्र में जाने देता है और उसके लिये दुःख या शोक नहीं करता, उसे हानि नहीं मानता। उसका हृदय और आत्मा पूर्णतया उसके वश में होते हैं, वे समस्त प्रतिक्रिया या आवेश से मुक्त होता है, वे बाह्म विषयों के स्पर्श से विक्षुब्ध नहीं होते। उसका कर्म मात्र शरीरिक कर्म होता है क्योंकि वाकी सब कुछ तो ऊपर से आता है, मानव स्तर पर पैदा नहीं होता, भगवान् पुरुषोत्तम के संकल्प, ज्ञान और आनंद का प्रतिबिंबमात्र होता है ; इसलिये वह कर्म और उसके उद्देश्यों पर जोर देकर अपने मन और हृदयों में वे प्रतिक्रियाएं नहीं होने देता जिन्हें हम षड़रिपु और पाप कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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