गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द18.दिव्य कर्मी
जो आत्मा की इस मुक्तावस्था में रहता है और प्रकृति के गुणों में बंधा नहीं है, वही कर्मों से मुक्त रहता है। गीता के इस वाक्य का कि ‘‘जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है वही मनुष्यों में विवेकी और बुद्धिमान् है,[1] ”स्पष्ट रूप से यही अभिप्राय है। गीता का यह वाक्य सांख्य ने पुरुष और प्रकृति के बीच जो भेद किया है उस पर प्रतिष्ठित है-वह भेद यह है कि पुरुष नित्य मुक्त, अकर्ता, चिरशांत, शुद्ध तथा कर्मों के अंदर भी अविचल है और प्रकृति चिरक्रियाशीला है जो जढ़ता और अकर्म की अवस्था में भी उतनी ही कर्मरत है जितनी कि दृश्य कर्मस्त्रोत के कोलाहल में। यही वह उच्चतम ज्ञान है जो बुद्धि के उच्चतम प्रयास से प्राप्त होता है, इसलिये जिसने इस ज्ञान को प्राप्त कर लिया है वही यथार्थ में बुद्धिमान् है, वह भ्रांत मोहित बुद्धिवाला मनुष्य नहीं जो जीवन और कर्म को निम्नतार बुद्धि के बाह्य, अनिश्चित और अस्थायी लक्षणों से समझना चाहता है। इसलिये मुक्त पुरुष कर्म से भीत नहीं होता, वह संपूर्ण कर्मों का करने वाला विशाल विराट कर्मी होता है, वह औरों की तरह प्रकृति के वश में रहकर कर्म नहीं करता है, वह आत्मा की नीरव स्थिरता में प्रतिष्ठित होकर, भगवान् के साथ योगयुक्त होकर कर्म करता है। उसके कर्मों के स्वामी भगवान् होते हैं, वह उन कर्मों का निमित्तमात्र होता है जो उसकी प्रकृति अपने स्वामी को जानते हुए, उन्हीं के वश में रहते हुए करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.18
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