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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द
17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म
यही देवासुरसंग्राम है जो प्रतीक-रूप से प्राचीन भारतीय साहित्य में भरा है। महाभारत के महायुद्ध को, जिसमें मुख्य सूत्रधार श्रीकृष्ण हैं, प्रायः इसी देवासुर-संग्राम का एक रूपक कहा जाता है; पाण्डव, जो धर्मराज्य की स्थापना के लिये लड़ रहे हैं, देवपुत्र हैं, मानव रूप में देवताओं की शक्तियां हैं और उनके शत्रु आसुरी शक्ति के अवतार हैं, असुर हैं, इस बाह्य संग्राम भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करने, असुरों अर्थात् दुष्टों का राज्य नष्ट करने, उन्हें चलाने वाली आसुरी शक्ति का दमन करने और धर्म के पीड़ित आदर्शों को पुनः स्थापित करने के लिये भगवान् अवतार लिया करते हैं। व्यष्टिगत मानव-पुरुष में स्वर्गराज्य का निर्माण करना जैसे भगवदवतार का उद्देश्य होता है वैसे ही मानव-समष्टि के लिये भी स्वर्गराज्य को पृथ्वी के निकटतर ले आना उनका उद्देश्य होता है।
भगवदावतार के आने का आंतरिक फल उन लोंगों को प्राप्त होता है जो भगवान् की इस क्रिया से दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के वास्तविक मर्म को जान लेते और अपनी चेतना में भगवन्मय होकर, सर्वथा भगवदाश्रित होकर रहते, और अपने ज्ञान की तपः शक्ति से पूत होकर, अपा प्रकृति से मुक्त होकर भगवान् के स्पस्ट और स्वभाव को प्राप्त होते हैं मनुष्य के अंदर इस अपरा प्रकृति के ऊपर जो दिव्य प्रकृति है उसे प्रकटाने के लिये तथा बंधरहित, निरंहकार, निष्काम, नैवर्यक्तिक, विश्वव्यापक, भागवत ज्योति, शक्ति और प्रेम से परिपूर्ण दिव्य कर्म दिखने के लिये भगवान् का अवतार हुआ करता है। भगवन् आते हैं दिव्य व्यक्तित्व के रूप में, वह व्यक्तित्व जो मनुष्य की चेतना में बस जायेगा और उसके अहंभावापन्न परिसीमित व्यक्तित्व की जगह ले लेगा जिससे कि मनुष्य अहंकार से मुक्त होकर अनंता और विश्वव्यापकता में फैल जाये, जन्म के पचड़े से निकलकर अमर हो जाये। भगवान् भागवत शक्ति और प्रेम के रूप में आते हैं जो मनुष्यों को अपनी ओर बुलातें हैं ताकि मुनष्य उन्हीं का आश्रय लें और अपने मानव संकल्पों को त्याग दें, अपने काम-क्रोध और भयजनित द्वंद्वों से छूट जायें और इस महान् दुःख और अशांति से मुक्त होकर भागवत शांति और आनंद में निवास करे।
जन्म कर्म च मे दिव्यं एवं यो वेत्ति तत्त्वत: ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥4.9॥
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता: ॥4.10॥
अवतार किसी रूप में, किस नाम से आवेंगे और भगवान् के पहलू को सामने रखेंगे, इसका विशेष महत्त्व नही है; क्योंकि मनुष्यों की भिन्न-भिन्न प्रकृति के अनुसार जितने भी विभिन्न मार्ग हैं उन सभी में मनुष्य भगवान् के द्वारा अपने लिये नियत मार्ग पर चल रहे हैं जो अंत में उन्हें भगवान् के समीप ले जायेगा। भगवान् का वही पहलू मनुष्यों की प्रकृति के अनुकूल होता है जिसका वे उस समय अच्छी तरह से अनुसरण करें जब भगवान् नेतृत्व करने आये, मनुष्य चाहे जिस तरह भगवान् को अपनायें उनसे प्रेम करें और आनंदित हों, भगवान् उन्हें उसी तरह से अपनाते, उनसे प्रेम करते और आनंदित होते हैं, ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्। [1]
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