गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म
क्योंकि यद्यपि स्थल पर अवतार श्रीकृष्ण ने नाम और स्पष्ट में प्रकट हैं पर वे अपने मानवजन्म के इस एक रूप पर ही जोर नहीं दे रहे; बल्कि उन भगवान पुरुषोत्तम की बात कह रहे हैं जिनका यह एक रूप है, समस्त अवतार जिनके मानवजन्म हैं और मनुष्य जिन-जिन देवताओं के नाम और उनकी पूजा करते हैं, वे सब भी उन्हीं के रूप हैं। श्रीकृष्ण ने जिस मार्ग का वर्णन किया है उसके बारे में यद्यपि यह घोषित किया गया है कि यह वह मार्ग है जिसपर चलकर मुनष्य सच्चे ज्ञान और सच्ची मुक्ति को प्राप्त कर सकता है, किंतु यह वह मार्ग है जिसमें अन्य सब मार्ग समाये हुए हैं, उनका इसमें बहिष्कार नहीं है। भगवान् अपनी विश्वव्यापकता में समस्त अवतारों, समस्त शिक्षाओं और समस्त धर्मों को लिये हुए है। यह जगत् जिस युद्ध की रंगभूमि है गीता उसके दो पहलूओं पर जोर देती है, एक आंतरिक संघर्ष, दूसरा बाह्म युद्ध। आंतरिक संघर्ष में शत्रुओं का दल अंदर, व्यक्ति के अपने अंदर है, और इसमें कामना, अज्ञान और अंकार को मारना ही विजय है। पर मानव-समूह के अंदर धर्म और अधर्म की शक्त्यिों के बीच एक बाह्म युद्ध भी चल रहा है। भगवान्, मनुष्य की देवोपम प्रकृति और उसे मानवजीवन में सिद्ध करने का प्रयास करने वाली शक्तियां धर्म की सहायता करती हैं। उद्दंड अहंकार ही जिनका अग्रभाग है ऐसी आसुरी या राक्षसी प्रकृति, अहंकार के प्रतिनिधि और उसे संतुष्ट करने का प्रसास करने वालों को साथ लेकर अधर्म की सहायता करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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