गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म
इसके विरुद्ध इसकी परछाई और इनकार खड़ा है, अर्थात् वह सब जो इसकी बुद्धि का विरोध करता है, जो इसके विधान के अनुगत नहीं है, वह जो भागवत संपदा के रहस्य को न तो समर्पण कारण है न समर्पण करने की इच्छा रखता है, बल्कि जिन बातों को मनुष्य को अपनी प्रगति के मार्ग में पीछे छोड़ देना चाहिये, जैसे अशुचिता, संकीर्णता, बंधन, अंधकार, दुर्बलता, नीचता, असामंजस्य, दुःख, पार्थक्य, वीभत्सत्ता और असंस्कृति आदि एक शब्द में, जो कुछ धर्मों का विकार और प्रत्याख्यान है उस सबका मोरचा बनाकर सामने डट जाता है यही अधर्म है जो धर्म से लड़ता और उसे जीतना चाहता है, जो उसे पीछे और नीचे की ओर खींचना चाहता है, यह वह प्रतिगामी शक्ति है जो अशुभ, अज्ञान और अंधकार का रास्ता साफ करती है। इन दोनों में सतत संग्राम और संर्घष चल रहा है, कभी इस पक्ष की विजय होती है कभी उस पक्ष की, कभी ऊपर की ओर ले जाने वाली शक्तियों की जीत होती है तो कभी नीचे की ओर खींचने वाली शक्तियों की। मानव-जीवन और मानव-आत्मा पर अधिकार जमाने के लिये जो संग्राम होता है उसे वेदों ने देवासुर-संग्राम कहा है (देवता अर्थात् प्रकाश और अखंड अनंतता के पुत्र, असुर अर्थात् अंधकार और भेद की संतान); जरथुस्त्र के मत में यही अहुर्मज्द-अहिर्मन-संग्राम है और पीछे के धर्मसंप्रदायों में इसीको मानव जीवन और आत्मा पर अधिकार करने के लिये ईश्वर और उनके फरिश्तों के साथ शैतान या इबलीस और उनके दानवों का संग्राम कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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