गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म
नैकित रूप से सदाचार के नियम को, जीवनचर्या-संबंधी नैतिक विधान को अथवा और भी बाह्म और व्यावहारिक अर्थ मगर सामाजिक और राजनीतिक न्याय को या केवल सामाजिक नियमों के पालन को धर्म कहा जाता है। यदि हम इस शब्द को इसी अर्थ में ग्रहण करें, तो इसका यही अभिप्राय हुआ कि जब अनाचार, अन्याय और दुराचार का प्राबल्य होता है तब भगवान् अवतार लेकर सदाचारियों को बचाते और दुराचारियों को नष्ट करते हैं, अन्याय और अत्याचार को रौंद डालते और न्याय और सद्व्यवहार को स्थापित करते हैं ।कृष्णवतार का प्रसिद्ध पौराणिक वर्णन इसी प्रकार का है। कौरवों का अत्याचार, दुर्योधनादि जिसके मूर्त रूप हैं, इतना बढ़ा कि पृथ्वी के लिये उसका भार असह्य हो उठा और पृथ्वी को भगवान् से अवतार लेने और भार हल्का करने की प्रार्थना करनी पड़ी, तदानुसार विष्णु श्री कृष्णरूप में अवतीर्ण हुए, उन्होंने अत्याचार-पीड़ित पांडवों का उद्धार और अन्यायी कौरवों का संहार किया। उसके पूर्व अन्यायी अत्याचारी रावण का वध करने के लिये जो विष्णु का रामावतार अथवा क्षत्रियों की उद्दंडता को नष्ट करने के लिये परशुरामवतार या दैत्याज बलि के राज्य को मिटाने के लिये वामनावतार हुआ उसका भी ऐसा ही वर्णन है। परंतु यह प्रत्यक्ष है कि पुराणों के इस प्रसिद्ध वर्णन से कि अवतार इस प्रकार के सर्वथा व्यावहारिक, नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक कर्म को करने के लिये आते हैं, अवतार के कार्य का सच्चा विवरण नहीं मिलता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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