गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द16.भगवान् की अवतरण-प्रणाली
भागवत आनंद के अवतार से पहले शोक और दुःख को झेलने वाले अवतार की भी आवश्यकता होती है; मनुष्य की सीमा को अपनाने की आवश्यकता हेती है, ताकि यह दिखाया जा सके कि इसे किस प्रकार पार किया जा सकता है। और, यह सीमा किस प्रकार या कितनी दूर तक पार की जायेगी केवल आंतरिक रूप से पार की जायेगी या बाह्म रूप से भी, यह बात मानवजाति के उत्कर्ष की अवस्था पर निर्भर है, यह सीमा किसी अमानव चमत्कार के द्वारा नहीं लांघी जायेगी। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है और यही असल में मुनष्य की बुद्धि के लिये एक मात्र बड़ी समस्या है-क्योंकि यहाँ आकर मानव-बुद्धि अपनी ही सीमा के अदंर लुढ़कने-पुढ़कने लगती है-कि अवतार मानव-मन बुद्धि और शरीर का ग्रहण कैसे करता है? कारण इनकी सृष्टि अक्समात् एक साथ इसी रूप में नहीं हुई होगी, बल्कि भौतिक या आध्यात्कि या दोनो ही प्रकार के किसी विकासक्रम से ही हुई होगी। इसमें संदेह नहीं कि अवतार का अवतरण, दिव्य जन्म की ओर मुनष्य के आरोहण के समान ही तत्त्वतः एक आध्यात्मिक व्यापार है; जैसा कि गीता के वाक्य से जान पड़ता है, -यह आत्मा का जन्म है। परंतु फिर भी इसके एक भौतिक जन्म तो लगा ही रहता है। तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अवतार के मानव-मन और शरीर का कैसे निर्माण होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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