गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द15.अवतार की संभावना और हेतु
ये आक्षेप जो पहली नजर में बड़े प्रबल मालूम होते हैं, गीता के वक्ता भगवान् गुरु की दृष्टि के सामने मौजूद रहे होगें जब वे कहते हैं कि, यद्यपि मैं अपनी आत्म-सत्ता में अज हूं, अव्ययय हूं, प्राणि-मात्र का ईश्वर हूं, फिर भी मैं अपनी प्रकृति का अधिष्ठान करके अपनी माया के द्वारा जन्म लिया करता हूं; और जब वे यह कहते हैं कि मूढ़ लोग मनुष्य-शरीर में होने के कारण मुझे तुच्छ गिनते हैं पर यथार्थ में अपनी परम सत्ता के अंदर मैं प्राणिमात्र का ईश्वर हूं, और यह कि मैं अपनी भागवत चेतना की क्रिया में चातुर्वण्य का स्रष्टा हूँ तथ जगत् के कर्मों का कर्ता हूँ और यह होते हुए भी अपनी भागवत चेतना की नीरवता में मैं अपनी प्रकृति के कर्मों का उदासीन साक्षी हूँ, क्योंकि मैं सदा कर्म और अकर्म दोनों के परे हूं, परम प्रभु हूं, पुरुषोत्तम हूँ। और इस तरह गीता अवतार-तत्त्व के विरुद्ध किये जाने वाले आक्षेपों का पूरा जवाब दे देती है और इन सब निरोधों का समन्वय करने में समर्थ होती है, क्योंकि ईश्वर और जगत् के संबंध में वेदांत-शास्त्र के सिद्धांत से गीता का आरंभ होता है। वेदांत की दृष्टि में ये आपातप्रबल आक्षेप प्रारंभ से ही निरस्सार और निरर्थक हैं। यद्यपि वेदांत की योजना के लिये अवतार की भावना अनिवार्य नहीं है, पर फिर भी यह भावना उसमें सर्वथा युक्तियुक्त और न्यायसंगत धारणा के रूप में सहज भाव से आ जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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