गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द15.अवतार की संभावना और हेतु
जिन श्लोंको का अनुवाद ऊपर दिया गया है, उनमें से पीछे के श्लोक, जिनका सारांश-मात्र दिया गया है, ‘दिव्य कर्म’ का स्वरूप बतलाने वाले हैं, और उसका निरूपण हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं; और उनमें से पहले के श्लोक, जिनका संपूर्ण अनुवाद दिया गया है, वे ‘दिव्य जन’ अर्थात् अवतारतत्त्व का प्रतिपादन करने वाले हैं पर यहाँ हमें एक बात बड़ी सावधनी के साथ कह देनी है कि अवतार का अपना-जो मानव जाति के अंदर भगवान् का परम रहस्य है-केवल धर्म का संस्थापन करने के लिये ही नहीं होता। क्योंकि धर्मसंस्थापन स्वयं कोई इतना बड़ा और पर्याप्त हेतु नहीं है, कोई ऐसा महान लक्ष्य नहीं है जिसके लिये ईसा या कृष्ण या बुद्ध को उतरकर आना पड़े, धर्मसंस्थापन तो किसी और भी महान्, परतर और भागवत संकल्पसिद्धि की एक सामान्य अवस्था मात्र है। कारण दिव्य जन्म के दो पहलू हैं; एक अवतरण, मानव भाँति में भगवान् का जन्मग्रहण, मानव आकृति और प्रकृति में भगवान का प्राकट्य, यही सनातन अवतार है; दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्मग्रहण, भागवत प्रकृति और भागवत चैतन्य में उसका उत्थान-मद्भाव-मागताः, यह जीव का नवजन्म, द्वितीय जन्म है। भगवान् का अवतार लेना और धर्म का संस्थापन करना इसी नव-जनम के लिये होता है। अवतारविषयक गीता सिद्धांत के इस द्विविध पहलू की और उन लोगो का ध्यान नहीं जाता जो गीता को सरसरी तौर पर पढ़ जाते हैं और अधिकांश पाठक ऐसे ही होते हैं जो इस ग्रंथ की गंभीर शिक्षा की और न जाकर इसके ऊपरी अर्थ से ही संतुष्ट हो जाते हैं। और वे भाष्यकार भी, जो अपनी सांप्रदायिक चहारदीवारी के अंदर बंद रहते हैं, इसको नहीं देख पाते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.12-15
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