गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 141

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

15.अवतार की संभावना और हेतु


इसलिये मनुष्यों को अपने गुण-कर्म के अनुसार चतुर्विध धर्म का पालन करना पड़ता है और सांसारिक कर्म के इस क्षेत्र में वे भगवान् को उनके विविध गुणों में ही ढूंढते हैं। परंतु भगवान् कहते हैं कि यद्यपि मैं चतुर्विध कर्मों का कर्ता और चातुर्वण्य का स्पष्टता हूँ तो भी मुझे अकर्ता, अव्यय, अक्षर आत्मा भी जानना चाहिये। “ कर्म मुझे लिप्त नहीं करते, न कर्मफल की मुझे कोई स्पृहा है।” कारण भगवान् नैर्व्यक्तिक हैं और इस अहंभावापन्न व्यक्तित्व के तथा प्रकृति के गुणें के इस द्वंद्व के परे हैं, और अपने पुरुषोत्तम-स्वरूप में भी, जो उनका नैर्व्यक्तिक पुरुषभाव है, वे कर्म के अंदर रहते हुए भी अपनी इस परम स्वतंत्रता पर अधिकार रखते हैं। इसलिये दिव्य कर्मों के कर्ता को चातुर्वण्य का पालन करते हुए भी उसी को जानना और उसी में रहना होता है जो परे है, जो नैर्व्यक्तिक है और फलतः परमेश्वर है। भगवान कहते हैं “ इस प्रकार जो मुझे जानता है, वह अपने कर्मों से नहीं बंधता। यही जानकर मुमुक्ष लोगों ने पुराकाल में कर्म किया; इसलिये तू भी उसी पूर्वतर प्रकार के कर्म कर जेसे पूर्वपुरुषों ने किये थे।”[1]

जिन श्लोंको का अनुवाद ऊपर दिया गया है, उनमें से पीछे के श्लोक, जिनका सारांश-मात्र दिया गया है, ‘दिव्य कर्म’ का स्वरूप बतलाने वाले हैं, और उसका निरूपण हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं; और उनमें से पहले के श्लोक, जिनका संपूर्ण अनुवाद दिया गया है, वे ‘दिव्य जन’ अर्थात् अवतारतत्त्व का प्रतिपादन करने वाले हैं पर यहाँ हमें एक बात बड़ी सावधनी के साथ कह देनी है कि अवतार का अपना-जो मानव जाति के अंदर भगवान् का परम रहस्य है-केवल धर्म का संस्थापन करने के लिये ही नहीं होता। क्योंकि धर्मसंस्थापन स्वयं कोई इतना बड़ा और पर्याप्त हेतु नहीं है, कोई ऐसा महान लक्ष्य नहीं है जिसके लिये ईसा या कृष्ण या बुद्ध को उतरकर आना पड़े, धर्मसंस्थापन तो किसी और भी महान्, परतर और भागवत संकल्पसिद्धि की एक सामान्य अवस्था मात्र है। कारण दिव्य जन्म के दो पहलू हैं; एक अवतरण, मानव भाँति में भगवान् का जन्मग्रहण, मानव आकृति और प्रकृति में भगवान का प्राकट्य, यही सनातन अवतार है; दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्मग्रहण, भागवत प्रकृति और भागवत चैतन्य में उसका उत्थान-मद्भाव-मागताः, यह जीव का नवजन्म, द्वितीय जन्म है। भगवान् का अवतार लेना और धर्म का संस्थापन करना इसी नव-जनम के लिये होता है। अवतारविषयक गीता सिद्धांत के इस द्विविध पहलू की और उन लोगो का ध्यान नहीं जाता जो गीता को सरसरी तौर पर पढ़ जाते हैं और अधिकांश पाठक ऐसे ही होते हैं जो इस ग्रंथ की गंभीर शिक्षा की और न जाकर इसके ऊपरी अर्थ से ही संतुष्ट हो जाते हैं। और वे भाष्यकार भी, जो अपनी सांप्रदायिक चहारदीवारी के अंदर बंद रहते हैं, इसको नहीं देख पाते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 4.12-15

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गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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