गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द13.यज्ञ के अधीश्वर
कर्मों का यज्ञ जारी है, पर इसके करने वाले अब हम नहीं, बल्कि प्रकृति है जो हमारी अनंत सत्ता में उसके सांत भाग अर्थात् मन-बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर के द्वारा कर्म करती है। परंतु तब इस यज्ञ को किसके अर्पण किया जाता है और किस उद्देश्य से? क्योंकि नैव्यक्तिक ब्रह्म में कोई कर्तृत्व नहीं, कोई कामना-वासना नहीं, कोई प्राप्तवय नहीं; प्राणियों के इस जगत् में किसी चीज पर उसकी निर्भरता नहीं; वह अपने लिये, अपने ही आनंद में अपनी ही अक्षर अविनाशी अव्यय सत्ता में रहता है। इस नैर्व्यक्तिक आत्मस्थिति और आत्मरति तक पहुँचने के लिये साधना के तौर पर निष्काम कर्म आवश्यक हो सकता है, पर इस अवस्था में पहंचने पर कर्म का ध्येय पूरा हो जाता है; फिर यज्ञ की क्या आवश्यकता? कर्म तब भी हो सकते हैं, क्योंकि प्रकृति मौजूद है और उसके कर्म हो रहे हैं; परंतु फिर इन कर्मों का ध्येय कुछ नहीं रहता। अर्थात् मुक्ति के बाद हमारे कर्म करते रहने का एकमात्र कारण केवल अभावात्मक है; यह हमारी सत्ता के सान्त भागों, मन, प्राण और शरीर पर प्रकृति की जबरदस्ती है। परंतु यदि यही सब कुछ हो तो पहली बात यह है कि कर्मों की संख्या घटाकर कम-से-कम की जा सकती है, उतने ही काम किये जायें जितने प्रकृति हमारे शरीर से जबरदस्ती कराती है; दूसरी बात यह है कि कर्मों को चाहे कम-से-कम न भी किया जाये-क्योंकि कर्म का कुछ महत्त्व नहीं है न अकर्म ही ध्येय है-तो भी कर्म के स्वरूप का कोई महत्त्व नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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