गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द13.यज्ञ के अधीश्वर
वह अपने कर्मों का कर्ता अपने-आपको ही जानता है और यह नहीं देख पाता कि जगत् के सारे कर्म जिनमें उसके अपने आंतर और बाह्म सब कर्म ही शामिल हैं, एक ही विश्व-प्रकृति द्वारा होने वाले कर्म हैं, और कुछ भी नहीं। वह अपने-आपको ही सब कर्मों का भोक्ता समझता है और यह कल्पना करता है कि सब कुछ उसके भोग के लिये है और इसलिये यही चाहता है कि प्रकृति उसकी व्यष्टिगत इच्छाओं को माने और तृप्त करे; उसे यह नहीं सूझता कि उसकी इच्छाओं को तृप्त करने से प्रकति का कुछ भी वास्ता नहीं है। उसकी इच्छाओं को जानने की उसे परवा भी नहीं, प्रकृति एक उच्चतर संकल्प की आज्ञा का पालन करती है और उस देव को तृप्त उसकी अपनी नहीं, बल्कि प्रकृति की है और प्रकृति इन सब चीजों का प्रतिक्षण उन भगवान् को यज्ञ-रूप से अर्पण किया करती है जिनके हेतु को सिद्ध करने के लिये वह इन सब चीजों को अज्ञात, अप्रकट साधनमात्र बनाया करती है। इस अज्ञान के कारण ही, जिसकी मुहर-छाप अहंकार है, जीव यज्ञ के विधान की उपेक्षा करता है और संसार में सब कुछ अपने लिये ही बटौरना चाहता है और केवल उतना ही देता है जितना प्रकृति अपनी भीतरी और बाहरी दबाव से दिलवाती है। यथार्थ में वह उससे अधिक कुछ नहीं ले सकता, जितना प्रकृति उसे लेने देती है, जितना प्रकृति में स्थित ईश्वरी शक्तियां उसकी कामना पूरी करने के लिेय देती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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