गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द13.यज्ञ के अधीश्वर
परमेश्वर के अंदर ही सब वस्तुओं का गुह्म सत्य और निरक्षेप समन्वय होता है। कर्मों का सारा सत्य सत्ता के सत्य पर ही निर्भर होता है। सारा सक्रिय जीवन अपने अंतरतम सत्स्वरूप में प्रकृति का पुरुष के प्रति कर्म-यज्ञ के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। यह प्रकृति का अपने अंदर रहने वाले संत बहुपरूष की कामना को एक परम और अंत पुरुष के चरणों में भेंट चढ़ाना है। जीवन एक यज्ञवेदी है जिस पर प्रकृति अपने सब कर्मों और कर्मफलों को लाती और उन्हें भगवान् के उस रूप के सामने रखती है जिस रूप तक उसकी चेतना उस समय पहुँच पायी हो। इस यज्ञ से उसी फल की कामना की जाती है जिसे शरीर-मन-प्राण में रहने वाला जीव अपना तात्कालिक या परम श्रेय मानता हो। प्रकृतिस्थ पुरुष अपनी चेतना और आत्मसत्ता के जिस स्तर तक पहुँचता है उसी के अनुसार उस ईश्वर का वह रूपस्वरूप होता है किसे वह पूजता है, आनंद का वह स्वरूप होता है जिसे वह ढ़ूढ़ता है और वह आशा होती है जिसके लिये वह यज्ञ करता है। प्रकृतिगत क्षर पुरुष की प्रवृत्ति में सारा व्यवहार पारस्परिक आदान-प्रदान है। क्योंकि सारा जीवन एक है और इसके विभाजन स्वभावतः परस्पर अबलंबन के किसी ऐसे विधान पर स्थापित हो सकते हैं जिसमें प्रत्येक विभाग दूसरे के सहारे बढ़ता और सबके सहारे जीता हो। जहाँ यज्ञ में स्वेच्छा से आहुति नहीं दी जाती वहाँ प्रकृति जबरदस्ती वसूलन करती है और इस प्रकार अपने जीवन-विधान रक्षा करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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