गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द12.यज्ञ-रहस्य
जो यज्ञाविशष्ट अमृत भोग करते हैं वे ही सनातन ब्रह्म को लाभ करते हैं, यह ही विश्व का विधान है, यज्ञ के बिना कुछ भी हासिल नहीं हो सकता, न इस लोक में प्रभुत्व प्राप्त हो सकता है, न परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है–“जो यज्ञ नहीं करता उसके लिये यह लोक भी नहीं है, परलोक की तो बात ही क्या, इसलिये ये सब यज्ञ और अन्य अनेक प्रकार के यज्ञ ब्रह्म के मुख में विस्तृत हुए हैं-उस अग्नि के मुख में जो सब हव्यों को ग्रहण करता है। ये सब कर्म में प्रतिष्ठित उसी एक महान् सत् के साधन और रूप हैं, जिन साधनों के द्वारा मानव-जीव का कर्म उसी तत्त्व को समर्पित होता है। मानव-जीव का बाह्म जीवन भी उसी तत् का एक अंश है और उसकी अंतरतम सत्ता उसके साथ एक है। ये सब साधन या यज्ञ ‘कर्मज’ हैं, सब भगवान् की उसी एक विशाल शक्ति से निकले, उसी एक शक्ति द्वारा निर्दिष्ट हुए हैं जो विश्वकर्म में अपने -आपको अभिव्यक्त करती और इस विश्व के समस्त कर्म को उसी एक परमात्मा परमेश्वर का क्रमशः बढ़ता हुआ नैवेद्य बनाती है जिसकी चरम अवस्था, मानव-प्राणी के लिये आत्म-ज्ञान की या भागवत चेतना की या ब्राह्मी चेतना की प्राप्ति है। “ऐसा जानकर तू मुक्त होगा” -परंतु यज्ञ के इन विभन्न रूपों में उतरती-चढ़ती श्रेणियां हैं, जिनमें सबसे नीची श्रेणी है द्रव्यमय यज्ञ और सबसे ऊंची श्रेणी है ज्ञानमय यज्ञ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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