नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
46. सारा जीवन हरिमय हो सकता है
28. अपने सब व्यवहारों में इस कल्पना को लाओ। शिक्षाशास्त्र में तो इस कल्पना की बड़ी ही आवश्यकता है। लड़के क्या है, प्रभु की मूर्तियां हैं। गुरु की यह भावना होनी चाहिए कि मैं इन देवताओं की ही सेवा कर रहा हूँ। तब वह लड़कों को ऐसे नहीं झिड़केगा- "चला जा अपने घर! खड़ा रह घंटे भर। हाथ आगे कर। कैसे मैले कपड़े हैं! नाक से कितनी रेंट बह रही है!" बल्कि हल्के हाथ से नाक साफ कर देगा, मैले कपड़े धो देगा और फटे कपड़े सी देगा। यदि शिक्षक ऐसा करे, तो इसका कितना अच्छा परिणाम होगा! मार-पीटकर कहीं अच्छा नतीजा निकाला जा सकता है?
लड़कों को भी चाहिए कि वे इसी दिव्य भावना से गुरु को देखें। गुरु शिष्यों को हरिमूर्ति और शिष्य गुरु को हरिमूर्ति मानें। परस्पर ऐसी भावना रखकर यदि दोनों व्यवहार करें, तो विद्या तेजस्वी होगी। लड़के भी भगवान और गुरु भी भगवान! यदि छात्र यह मान लें कि ये गुरु नहीं, भगवान शंकर की मूर्ति हैं, हम इनसे बोधामृत पा रहे हैं, इनकी सेवा करके ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, तो फिर सोच लीजिए कि वे गुरु के साथ कैसा व्यवहार करेंगे?
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