गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 98

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नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
46. सारा जीवन हरिमय हो सकता है

28. अपने सब व्यवहारों में इस कल्पना को लाओ। शिक्षाशास्त्र में तो इस कल्पना की बड़ी ही आवश्यकता है। लड़के क्या है, प्रभु की मूर्तियां हैं। गुरु की यह भावना होनी चाहिए कि मैं इन देवताओं की ही सेवा कर रहा हूँ। तब वह लड़कों को ऐसे नहीं झिड़केगा- "चला जा अपने घर! खड़ा रह घंटे भर। हाथ आगे कर। कैसे मैले कपड़े हैं! नाक से कितनी रेंट बह रही है!" बल्कि हल्के हाथ से नाक साफ कर देगा, मैले कपड़े धो देगा और फटे कपड़े सी देगा। यदि शिक्षक ऐसा करे, तो इसका कितना अच्छा परिणाम होगा! मार-पीटकर कहीं अच्छा नतीजा निकाला जा सकता है?

लड़कों को भी चाहिए कि वे इसी दिव्य भावना से गुरु को देखें। गुरु शिष्यों को हरिमूर्ति और शिष्य गुरु को हरिमूर्ति मानें। परस्पर ऐसी भावना रखकर यदि दोनों व्यवहार करें, तो विद्या तेजस्वी होगी। लड़के भी भगवान और गुरु भी भगवान! यदि छात्र यह मान लें कि ये गुरु नहीं, भगवान शंकर की मूर्ति हैं, हम इनसे बोधामृत पा रहे हैं, इनकी सेवा करके ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, तो फिर सोच लीजिए कि वे गुरु के साथ कैसा व्यवहार करेंगे?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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