गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 87

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नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
42. सरल मार्ग

8.परमेश्वर क्या कहीं छिपकर बैठा है? किसी खोह में, किसी घाटी मे, किसी नदी में या किसी स्वर्ग में वह लुककर बैठ गया है? लाल, नीलम, चांदी-सोना पृथ्वी के पेट में छिपा रहता है। मोती-मूंगा रत्नाकर समुद्र में छिपे रहते हैं। वैसा वह परमेश्वररूपी 'लाल रतन' क्या कहीं छिपा हुआ है? भगवान को कहीं से खोदकर निकालना है? यह सामने और सर्वत्र भगवान ही खड़ा है। ये सभी लोग परमात्मा की ही तो मूर्तियां हैं।

भगवान कहते हैं-: "इस मानव रूप में प्रकटित हरि-मूर्ति का अपमान मत करो भाई!" ईश्वर ही सारे चराचर में प्रकट हो रहा है। उसे खोजने के लिए कृत्रिम उपायों की क्या जरूरत? उपाय तो सीधा सरल है। तुम जो कुछ सेवा-कार्य करो, उस सब का संबंध भगवान से जोड़ दो; बस, काम बन गया। तुम राम के गुलाम हो जाओ। वह कठिन वेद-मार्ग, वह यज्ञ, वह स्वाहा, वह स्वधा, वह श्राद्ध, वह तर्पण सब मोक्ष की ओर ले जायेंगे। परंतु उसमें अधिकारी और अनधिकारी का झमेला खड़ा होता है। हमें उनकी जरूरत ही नहीं। इतना ही करो कि जो कुछ करते हो, वह ईश्वरार्पण कर दो। अपनी प्रत्येक कृति का संबंध ईश्वर से जोड़ दो। इस नौवें अध्याय की यही शिक्षा है। इसलिए यह भक्तों को बहुत प्रिय है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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