गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 86

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नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
42. सरल मार्ग

6. अतः कृपासागर संत लोग आगे बढ़कर बोले- "आओ, हम इन वेदों का रस निकाल लें। वेदों का सार थोड़े में निकालकर संसार को दें।" इसलिए तुकाराम महाराज कहते हैं- वेद अनंत बोलिला। अर्थ इतुकाचि साधिला- ‘वेदों ने अनंत बातें कहीं हैं, परंतु उनमें से केवल इतना ही सार रूप अर्थ निकला है’।’

वह अर्थ क्या है? तो हरि-नाम। हरि-नाम वेदों का सार है। राम-नाम से मोक्ष निश्चित हुआ। स्त्रियां, बच्चे, शूद्र, वैश्य, गंवार, दीन, दुर्बल, रोगी, पंगु सबके लिए मोक्ष सुलभ हो गया। वेदों की अलमारी में बंद मोक्ष को भगवान ने राजमार्ग पर लाकर रख दिया। मोक्ष की यह कितनी सीधी-सादी, सरल तरकीब! जिनका जैसा भी सीधा-सादा जीवन है, जो कुछ स्वधर्म-कर्म है, सेवा-कर्म है, उसी को यज्ञमय क्यों न बना दें? फिर दूसरे यज्ञ-याग की जरूरत ही क्या है? अपने नित्य के सीधे-सादे सेवा-कर्म को ही यज्ञ समझकर करो।

7. यही राज-मार्ग है।

यानास्थाय नरो राजन्! न प्रमाद्येत कहिंचित्।
धावत्रिमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह॥

इस मार्ग पर यदि आंखें मूंदकर दौड़ते चले जाओ, तो भी गिरने या ठोकर खाने का भय नही। दूसरा मार्ग है, क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया। तलवार की धार भी शायद थोड़ी भोथरी पड़ेगी, ऐसा विकट यह वैदिक मार्ग है। राम का गुलाम होकर रहने का मार्ग अधिक सुलभ है। इंजीनियर रास्ते की ऊंचाई धीरे-धीरे बढ़ाता हुआ ऊपर ले जाता है और हमें ऊंचे शिखर पर ला बिठाता है। हमें पता भी नहीं लगता कि इतने ऊंचे चढ़ रहे हैं। इंजीनियर की इस खूबी की तरह ही इस राजमार्ग की खूबी है। मनुष्य जिस जगह कर्म करते हुए खड़ा है; वहीं उस सादे कर्म द्वारा वह परमात्मा को प्राप्त कर सकता है- ऐसा यह मार्ग है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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