नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
42. सरल मार्ग
4. गीता जिस धर्म का सार है, उस धर्म को ‘वैदिक धर्म’ कहते हैं। वैदिक धर्म का अर्थ है, वेदों से निकला हुआ धर्म। इस जगतीतल पर जितने अति प्राचीन लेख हैं, उनमें वेद सबसे पहले लेख माने जाते हैं। भक्त लोग उन्हें अनादि मानते है। इसी से वेद पूज्य माने जाते हैं। यदि इतिहास की दृष्टि देखा जाये, तो भी वेद हमारे समाज की प्राचीन भावनाओं के प्राचीनतम चिह्न हैं। ताम्रपट, शिलालेख, सिक्के, बर्तन, प्राणियों के अवशेष आदि की अपेक्षा ये लिखित साधन बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं। संसार में पहला ऐतिहासिक प्रमाण यदि कोई है, तो वह वेद है। इन वेदों में जो धर्म बीजरूप में था, उसका वृक्ष होते-होते अंत में उसमें गीता रूपी दिव्य मधुर फल लगा। फल के सिवा पेड़ का हम खायें भी क्या? जब वृक्ष में फल लगते हैं, तभी हमारे खाने की चीज उसमें हमें मिल सकी है। गीता वेदधर्म सार का भी सार है। 5. यह जो वेद-धर्म प्राचीन काल से रूढ़ था, उसमें नाना यज्ञयाग, क्रियाकलाप, विविध तमश्चर्या, अनेक साधनाएं बतलायी गयी हैं। यह जो सारा कर्मकांड है, यद्यपि वह निरुपयोगी नहीं है, तो भी उसके लिए अधिकर चाहिए। वह कर्मकांड सबके लिए सुलभ नहीं था। ऊंचे नारियल के पेड़ पर चढ़कर फल कौन तोड़े, कौन छीले और कौन फोड़े? मैं चाहे कितना ही भूखा होऊं, पर ऊंचे पेड का वह नारियल मुझे मिले कैसे? मैं नीचे से उसकी ओर देखता हूं, ऊपर से नारियल मुझे देखता है। परंतु इससे पेट की ज्वाला कैसे बुझेगी जब तक वह नारियल मेरे हाथ में न पड़े, तब तक सब व्यर्थ है। वेदों की इन नाना क्रियाओं में बड़े बारीक विचार रहते हैं। जन-साधारण को उनका ज्ञान कैसे हो? वेद-मार्ग के सिवा मोक्ष नहीं, परंतु वेदों का तो अधिकार नहीं। तब दूसरों का काम कैसे चले? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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