गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 81

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आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
39. रात-दिन युद्ध का प्रसंग

15. सार यह है कि बाहर से सतत स्वधर्माचरण और भीतर से हरिस्मरणरूपी चित्त-शुद्धि की क्रिया, इस तरह जब ये अंतर्बाह्य-कर्म-विकर्म के प्रवाह काम करेंगे, तब मरण आनंददायी मालूम होगा। इसलिए भगवान कहते हैं- तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च- ‘मेरा अखंड स्मरण करो और लड़ते रहो।’ सदा त्यांत चि रंगला- 'उसी में सदा रंगा रह।' सदा ईश्वर में लीन रहो। ईश्वरीय प्रेम से जब अंतर्बाह्य रंग जाओगे, जब वह रंग सारे जीवन में चढ़ जायेगा, तब पवित्र बातों में सदैव आनंद आने लगेगा। तब बुरी वृत्तियां सामने आकर खड़ी ही नहीं रहेंगी। सुंदर, बढ़िया मनोरथों के अंकुर मन में उगने लगेंगे। अच्छे कर्म सहज ही होने लगेंगे।

16. यह तो ठीक है कि ईश्वर-स्मरण से अच्छे कर्म सहज भाव से होने लगेंगे; परंतु भगवान की आज्ञा है कि ‘लड़ते रहो’। तुकाराम महाराज कहते हैं- रात्री दिवस आम्हां युद्धाचा प्रसंग। अंतर्र्बाह्यजग आणि मन - 'हमारे लिए रात-दिन युद्ध का ही प्रसंग है। एक ओर है मन और दूसरी ओर हैं अंतर्बाह्य जगत्!’ भीतर और बाहर अनंत सृष्टि व्याप्त है। इस सृष्टि से मन का सतत झगड़ा जारी रहता है। इस झगड़े में हर बार जय ही होगी, ऐसा नहीं। जो अंत को साध लेगा, वही सच्चा विजयी। अंत में जो फैसला हो, वही सही। कभी सफलता मिलेगी, तो कभी असफलता। असफलता मिली, तो निराश होने का कोई कारण नहीं। मान लो कि पत्थर पर उन्नीस बार चोट लगने वे वह नहीं फूटा और बीसवीं बार की चोट से फूट गया, तो फिर क्या वे उन्नीस चोटें व्यर्थ ही गयीं? उस बीसवीं चोट की सफलता की तैयारी वे उन्नीस चोटें कर रही थीं।

17. निराश होने का अर्थ है, नास्तिक होना। विश्वास रखो कि परमेश्वर हमारा रक्षक है। बच्चे की हिम्मत बढ़ाने के लिए मां उसे इधर-उधर जाने देती है; परंतु वह उसे गिरने नहीं देती। जहाँ वह गिरने लगा कि झट् आकर धीरे से उठा लेती है। ईश्वर भी तुम्हारी ओर देख रहा है। तुम्हारी जीवनरूपी पतंग की डोरी उसके हाथ में है। कभी वह डोर खींच लेता है, कभी ढीली छोड़ देता है; परंतु यह विश्वास रखो कि डोर है उसके हाथ में। गंगा के घाट पर तैरना सिखाते हैं। घाट पर के वृक्ष में सांकल या डोरी बंधी रहती है। उसे कमर से बांधकर आदमी को पानी में फेंक देते हैं। सिखाने वाले उस्ताद भी पानी में रहते ही हैं। नौसिखिया पहले दो-चार बार डुबकी खाता है, परंतु अंत में वह तैरने की कला सीख जाता है। इसी तरह परमेश्वर हमें जीवन की कला सिखा रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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