गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 80

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आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
38. सदा उसी में रंगा रह


14. डॉक्टर ने रोज दवा पीने के लिए कहा, पर हम सारी दवा एक ही रोज पी लें, तो? तो वह बेतुकी बात होगी। औषधि का उद्देश्य सफल नहीं होगा। प्रतिदिन औषधि के संस्कार से प्रकृति की विकृति दूर करनी चाहिए। ऐसी ही बात जीवन की है। शिव जी पर धीरे-धीरे ही अभिषेक करना पड़ता है। मेरा यह प्रिय दृष्टांत है। बचपन मैं नित्य इस क्रिया को देखता था। चौबीस घंटों में कुल मिलाकर वह पानी दो बाल्टी होता होगा, तो फिर एक साथ दो बाल्टी पानी शिवजी पर क्यों न उंड़ेल दें?

इसका उत्तर बचपन में ही मुझे मिल गया। पानी एकदम उंड़ेल देने से वह कर्म सफल नहीं हो सकता। एक-एक बूंद की सतत धार पड़ना ही उपासना है। समान संस्कारों की धारा सतत बहनी चाहिए। जो संस्कार सवेरे, वही दोपहर को, वही शाम को, वही दिन में, वही रात में, वही कल, वही आज और जो आज, वही कल, जो इस साल, वही अगले साल, जो इस जनम में, वही अगले जन्म में, जो जीवन में, वही मृत्यु में। ऐसी एक-एक सत्संस्कार की दिव्यधारा सारे जीवन में सतत बहती रहनी चाहिए। ऐसा प्रवाह अखंड चालू रहेगा, तभी हम अंत में जीत सकेंगे। तभी हम मुकाम पर अपना झंडा गाड़ सकेंगे।

संस्कारों का प्रवाह एक ही दिशा में बहना चाहिए। पहाड़ पर गिरा पानी यदि दसों दिशाओं में बह जायेगा, तो फिर उससे नदी नहीं बन सकती। इसके विपरीत अगर सारा पानी एक ही दिशा में बहेगा, तो वह सोते से धारा, धारा से प्रवाह, प्रवाह से नदी, नदी से गंगा बनकर ठेठ समुद्र तक जा पहुँचेगा। एक दिशा में बहने वाला पानी समुद्र में मिलेगा, चारों दिशाओं में जाने वाला यों ही सूख जायेगा। यही बात संस्कारों की है। संस्कार यदि आते और मिटते गये, तो क्या फायदा? जब जीवन में संस्कारों का पवित्र प्रवाह सतत बहता रहेगा, तभी अंत में मरण महाआनंद का निधान मालूम पड़ेगा। जो यात्री रास्ते में ज्यादा न ठहरते हुए रास्ते के मोह और प्रलोभन से बचते हुए, कष्ट से कदम जमा-जमाकर, शिखर पर पहुँच गया और ऊपर पहुँचकर छाती पर के सारे बोझ और बंधन हटाकर, वहाँ की खुली हवा का अनुभव करने लगा, उसके आनंद की कल्पना क्या दूसरे लोग कर सकेंगे? पर जो प्रवासी रास्ते में रुक गया, उसके लिए सूर्य थोड़े ही रुकेगा?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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