गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 8

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पहला अध्याय
प्रास्ताविक आख्यायिका: अर्जुन का विषाद
4.ऋजु-बुद्धि का अधिकारी

16. आगे की सारी गीता समझने के लिए अर्जुन की यह भूमिका हमारे बहुत काम आती है, इसलिए तो हम इसका आभार मानेंगे ही; परन्तु इसका और भी एक उपकार है। अर्जुन की इस भूमिका में उसके मन की अत्यन्त ऋजुता का पता चलता है। खुद ‘अर्जुन’ शब्द का अर्थ ही ‘ऋजु’ अथवा ‘सरल स्वभाव वाला’ है। उसके मन में जो कुछ भी विकार या विचार आये, वे सब उसने खुले मन से भगवान के सामने रख दिये। मन में कुछ भी छिपा नहीं रखा और वह अंत में श्रीकृष्ण की शरण गया। सच पूछिए तो वह पहले से ही कृष्ण-शरण था। कृष्ण को सारथि बनाकर जबसे उसने अपने घोड़ों की लगाम उनके हाथों में पकड़ायी, तभी से उसने अपनी मनोवृत्तियों की लगाम भी उनके हाथों में सौंप देने की तैयारी कर ली थी आइए, हम भी ऐसा ही करें। "अर्जुन के पास तो कृष्ण थे, हमें कृष्ण कहाँ से मिलेंगे ?"- ऐसा हम न कहें। ‘कृष्ण ’ नामक कोई व्यक्ति है, ऐसी ऐतिहासिक उर्फ भ्रामक धारणा में हम न पड़े। अंतर्यामी के रूप में कृष्ण प्रत्येक के हृदय में विराजमान हैं। हमारे निकट से निकट वे ही हैं। तो हम अपने हृदय के सब छल-मल उनके सामने रख दें और उनसे कहें- "भगवान! मैं तेरी शरण में हूँ, तू मेरा अनन्य गुरु है। मुझे उचित मार्ग दिखा। जो मार्ग तू दिखायेगा, मैं उसी पर चलूंगा।" यदि हम ऐसा करेंगे, तो वह पार्थ-सारथि हमारा भी सारथ्य करेगा, अपने श्रीमुख से वह हमें गीता सुनायेगा और हमें विजय-लाभ करा देगा।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रविवार, 21-2-32

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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