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आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
38. सदा उसी में रंगा रह
12. जिस बात का हम रात-दिन अभ्यास करते हैं, वह हमसे क्यों नहीं चिपकी रहेगी? अजामिल की वह कथा पढ़कर भ्रम में मत पड़ियेगा। वह ऊपर से पापी था; परंतु उसके जीवन के भीतर से पुण्य की धारा बह रही थी। वह पुण्य अंतिम क्षण में जाग उठा। सदा-सर्वदा पाप करके अंत में राम-नाम अचूक याद आ जायेगा, इस धोखे में मत रहिये। बचपन से ही मन लगाकर अभ्यास करिये। ऐसी सावधानी रखें कि हमेशा अच्छे ही संस्कार पड़ें। ऐसा न कहें कि इससे क्या होगा और उससे क्या होगा? चार बजे ही क्यों उठें? सात बजे उठें, तो उससे क्या बिगड़ेगा? ऐसा कहने से काम नहीं चलेगा। यदि मन को बराबर ऐसी आजादी देते जाओगे, तो अंत में फंस जाओगे। फिर अच्छे संस्कार अंकित नहीं होने पायेंगे। एक-एक कण बीनकर लक्ष्मी जुटानी पड़ती है। एक-एक क्षण व्यर्थ न जाने देते हुए विद्यार्जन में लगाना पड़ता है।
इस बात का ध्यान रखों कि प्रतिक्षण अच्छा ही संस्कार पड़ रहा है न? बुरी बात बोले कि हुआ बुरा संस्कार। हमारी प्रत्येक कृति छेनी बनकर हमारा जीवनरूपी पत्थर गढ़ती है। दिन अच्छी तरह बीता, तो भी स्वप्न में बुरे विचार आ जाते हैं। दस-पांच दिन के विचार स्वप्न में आते हों, सो बात नहीं। कितने ही बुरे संस्कार असावधानी में पड़ जाते हैं। नहीं कह सकते कि वे कब जग पड़ेंगे। इसलिए छोटी-से-छोटी बातों में भी सजग रहना चाहिए। डूबते को तिनके का भी सहारा हो जाता है। हम संसार-सागर में डूब रहे हैं। यदि हम थोड़ा भी अच्छा बोलें, तो वह भी हमारे लिए आधार बन जाता है। भला किया व्यर्थ नहीं जाता। वह तुम्हें तार देगा। लेशमात्र भी बुरे संस्कार न होने चाहिए। सदा ऐसा ही उद्योग करो, जिससे आंखें पवित्र रहें, कान निंदा न सुनें, मुख से वाणी अच्छी निकले। यदि ऐसी सावधानी रखोगे, तो अंतिम क्षण में हुक्मी दांव पड़ेगा। हम अपने जीवन के और मरण के स्वामी बनेंगे।
13. पवित्र संस्कार डालने के लिए उदात्त विचार मन में घोलने चाहिए। हाथ पवित्र कर्म करने में लगे रहें। भीतर ईश्वर का स्मरण और बाहर से स्वधर्माचरण। हाथों से सेवारूपी कर्म, मन में विकर्म- ऐसा नित्य करते रहना चाहिए। गांधी जी को देखो, रोज चरखा चलाते हैं। वे रोज कातने पर जोर देते हैं। रोज क्यों कातें? कपड़े के लिए कभी-कभी कात लिया करें, तो क्या काम नहीं चलेगा? परंतु यह तो हुआ व्यवहार। रोज कातने में आध्यात्मिकता है। देश के लिए मुझे कुछ-न-कुछ करना है, इस बात का वह चिंतन है। वह सूत हमें नित्य दरिद्र-नारायण से जोड़ता है। वह संस्कार दृढ़ होता है।
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