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आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
37. मरण का स्मरण रहे
4. इस आठवें अध्याय में यह सिद्धान्त बताया गया है कि जो विचार मरते समय स्पष्टतः उभरता है, वही अगले जन्म में बलवत्तर सिद्ध होता है। इस पाथेय को साथ लेकर जीव आगे की यात्रा के लिए निकलता हैं आज के दिन की कमाई लेकर, नींद के बाद हम कल का दिन शुरू करते हैं। उसी तरह इस जन्म के पाथेय को लेकर मरणरूपी बड़ी नींद के बाद फिर हमारी यात्रा शुरू होती है। इस जन्म का जो अंत है, वही अगले जन्म का आरंभ है। अतः सदैव मरण का स्मरण रखकर चलो।
5. मरण का स्मरण रखने की जरूरत इसलिए भी है कि मृत्यु की भयानकता का मुकाबला किया जा सके, उसका उपाय निकाला जा सके। एकनाथ महाराज की एक कहानी है। एक सज्जन ने उनसे पूछा- "महाराज, आपका जीवन कितना सादा, कितना निष्पाप है! हमारा जीवन ऐसा क्यों नहीं? आप कभी गुस्सा नहीं होते, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं, टंटा-बखेड़ा नहीं। कितने शांत, कितने प्रेमपूर्ण, कितने पवित्र हैं आप।" एकनाथ ने कहा- "अभी मेरी बात छोड़ो। तुम्हारे संबंध में मुझे एक बात मालूम हुई है। आज से सात दिन के भीतर मृत्यु हो जायेगी।" अब एकनाथ की कही बात को झूठ कौन मानता? सात दिन में मृत्यु! सिर्फ 168 ही घंटे बाकी रहे। हे भगवन्! वह मनुष्य जल्दी-जल्दी घर दौड़ गया। कुछ सूझ नहीं पड़ता था। सारा समेटने की बातें करने लगा। तैयारी करने लगा, वह बीमार हो गया। बिस्तर पर पड़ गया। छह दिन बीत गये। सातवें दिन एकनाथ उससे मिलने आये। उसने नमस्कार किया। एकनाथ ने पूछा- "कैसा है?" वह बोला- "जाता हूँ अब।" फिर एकनाथ ने पूछा, "इन छह दिनों में कितना पाप हुआ? पाप के कितने विचार मन में आये?" वह आसन्न-मरण व्यक्ति बोला- "नाथ जी पाप का विचार करने की तो फुरसत ही नहीं मिली। मौत सतत आंखों के सामने खड़ी थी।" नाथ जी ने कहा- "हमारा जीवन इतना निष्पाप क्यों है, इसका उत्तर अब मिल गया न?’’ मरणरूपी शेर सदैव सामने खड़ा रहे, तो फिर पाप सूझेगा कैसे? पाप करने के लिए भी निश्चिंतता चाहिए। मरण का सदैव स्मरण रखना पाप से मुक्त होने का उपाय है। यदि मौत सामने दीखती रहे, तो फिर मनुष्य किस बल पर पाप करेगा?
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