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आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
36. शुभ संस्कारों का संचय
3. हमारा भी यही हाल है। मरने के समय यदि खाने की वासना हुई, तो जिंदगी भर भोजन का स्वाद लेने का ही अभ्यास करते रहे, यह सिद्ध होगा। भोजन या स्वाद की वासना, यही जिंदगी भर की कमाई। किस माता को, मरते समय यदि बेटे की याद हो आयी, तो उसका पुत्र संबंधी संस्कार ही बलवान मानना चाहिए। बाकी जो असंख्य कर्म किये, वे गौण हो गये। अंकगणित में अपूर्णांक के सवाल होते हैं। कितनी बड़ी-बड़ी संख्याएं! परन्तु संक्षेप करते-करते अंत में एक अथवा शून्य उत्तर आता है। इसी तरह जीवन में संस्कारों की अनेक संख्याएं बाद होकर अंत में एक बलवान संस्कार ही सार रूप में रह जाता है। जीवन रूपी प्रश्न का वह उत्तर है। अंतकालीन स्मरण ही सारे जीवन का फलित होता है।
जीवन का यह अंतिम सार मधुर निकले, अंत की यह घड़ी मधुर हो, इसी दृष्टि से सारे जीवन के उद्योग होने चाहिए। जिसका अंत मधुर, उसका सब मधुर। उस अंतिम उत्तर पर ध्यान रखकर सारे जीवन का सवाल हल करना चाहिए। इस ध्येय को दृष्टि के सामने रखकर सारे जीवन की योजना बनाओ। गणित में जो विशिष्ट प्रश्न पूछा गया होगा, उसको सामने रखकर उत्तर निकालते हैं। उसी तरह की रीति से काम लेना पड़ता है। अतः मरने के समय जो संस्कार दृढ़ रखने की इच्छा हो, उसी के अनुसार ही सारे जीवन का प्रवाह मोड़ना चाहिए। दिन-रात उसी की तरफ झुकाव रहना चाहिए।
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