सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
35. निष्काम भक्ति के प्रकार और पूर्णता
16. ये तीनों भक्त हैं तो निष्काम, परन्तु एकांकी हैं। एक कर्म के द्वारा, दूसरा हृदय के द्वारा, तीसरा बुद्धि के द्वारा ईश्वर के पास पहुँचता है। अब रहा पूर्ण भक्त का प्रकार। इसी को ज्ञानी भक्त कहना चाहिए। इस भक्त को जो कुछ दीखता है सो सब परमेश्वर का ही रूप है। कुरुप-सुरूप, राव-रंक, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी सर्वत्र परमात्मा के ही पावन दर्शन। नर-नारी बाळे अवघा नारायण। ऐसें माझें मन करीं देवा- ‘नर, नारी, बालक सभी नारायण हैं। ऐसा मेरा मन बना दो, हे प्रभु!’ संत तुकाराम की ऐसी प्रार्थना है। हिन्दू-धर्म में जैसे नाग-पूजा, हाथी की सूंड वाले देवता की पूजा, पेड़ों की पूजा आदि पागलपन के नमूने हैं, उनसे भी अधिक पागलपन का कमाल, ज्ञानी भक्तों में दीखता है। उनसे कोई भी क्यों न मिले, उन्हें चींटी से लेकर चंद्र-सूर्य तक सर्वत्र एक ही परमात्मा दीखता है और उनका हृदय आनंद से हिलोरें मारने लगता है। मग तया सुखा अंत नाहीं पार। आनंदें सागर हेलावती- ‘फिर उसे अपार सुख मिलता है। आनंद से उसका हृदय-सागर हिलोरें मारने लगता है।’
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रविवार, 3-4-32
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज